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________________ शोषण : सामाजिक हिंसा का स्रोत २६६ उक्त कथन में भले ही कुछ व्यंग हो, किन्तु सूक्ष्मबुद्धि से विचार करने से मालूम होगा कि वह कथन झूठा नहीं है। इन्सान ही इन्सान की जेब काटने को तैयार होता है, और इन्सान ही इन्सान का शोषण करता है ; फिर भले ही वह व्यापार के रूप में हो या किसी दूसरे रूप में । ___ शोषण की समस्या के अन्तर्गत ब्याज का भी प्रश्न उपस्थित हो जाता है । ब्याज का धन्धा आर्य है या अनार्य ? सामाजिक दृष्टि से उसमें औचित्य है या नहीं ? यदि औचित्य है तो किस हद तक ? इस सम्बन्ध में यदि शास्त्रों के पन्ने भी उलटे जाएँगे तो क्या निर्णय मिलने वाला है ? आपके पास आपका हृदय ही महाशास्त्र है। आपका यह हृदय-शास्त्र स्वयं इतना विशाल है कि दूसरे समस्त शास्त्र उसमें समा सकते हैं । हमारे समस्त शास्त्र भगवान् महावीर के हृदय से आए हैं । मानव-हृदय विचार-मौक्तिकों का विराट् सागर है। शुद्ध हृदय के विचारमौक्तिक ही शास्त्र बन कर चमकते हैं। विवेक जैनधर्म विवेक को सर्वोपरि स्वीकार करता है। संसार में जितने भी व्यवसाय चल रहे हैं और जिन्हें आर्य-व्यापार माना जाता है, उनमें भी विवेक की अनिवार्यता है । परन्तु विवेक, जो धर्म की आत्मा है, उसकी ओर हम कभी भी ध्यान नहीं देते और उसके बाह्य रूप में ही उलझ जाते हैं । अमुक ढंग का तिलक लगाना धर्म है। चोटी कटा लेना धर्म है और न कटवाना अधर्म है। एक बार एक कनफटे साधु से मेरी भेट हुई तो उन्होंने कहा- "आप भी कान छिदवा लीजिए। बिना कान फड़वाए साधु कैसे हो गए ?” उनका अभिप्राय यह था कि यदि कान फड़वा लिए जाएँ, तभी धर्म है, और यदि नहीं फड़वाए जाएँ तो धर्म नहीं है । आशय यह है कि हमारे यहाँ आमतौर पर ये धारणाएँ फैली हुई हैं कि यदि अमुक क्रिया अमुक ढंग से की जाएँ, तब तो धर्म है, अन्यथा वह धर्म नहीं है। इसी प्रकार यदि अमुक ढंग के वस्त्र पहने जाएँ तभी धर्म होगा, अन्यथा नहीं। परन्तु जैन-धर्म इन सबसे ऊपर उठ कर कहता है कि-विवेक में ही धर्म है। आचाराङ्गसूत्र में कहा भी गया है--जैन-धर्म में कहने-सुनने की हिंसा से कोई सम्बन्ध नहीं है, बोल-चाल के सत्य और असत्य से भी सम्बन्ध नहीं है, किन्तु विवेक के साथ सीधा और सच्चा सम्बन्ध है। अहिंसा का नाटक तो खेला, किन्तु यदि उसमें विवेक को स्थान नहीं दिया गया तो वह अहिंसा नहीं है। विवेक के अभाव में वह पूरी तरह हिंसा बन जाएगी और अधर्म कहलाएगी। किसी ने साधुपन ले लिया या श्रावकपन ले लिया, किन्तु विवेक नहीं रखा तो क्या वह धर्म हो गया ? जैन-धर्म के अनुसार जिस क्षेत्र में जितने अंशों में विवेक है, उतने ही अंशों में धर्म है, और जितने अंश में अविवेक है, उतने ही अंशों ४ "विवेगे धम्ममाहिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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