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________________ २६६ अहिंसा-दर्शन से ये दुःख नहीं आए हैं। प्रकृति की ओर से आने वाले दुःख कदाचित् और अल्प होते हैं । जैसे—कभी भूकम्प आ जाता है तो मनुष्य घबरा जाता है, कभी वर्षा ज्यादा हो जाती है या सूखा पड़ जाता है तब भी वह संत्रस्त हो जाता है । परन्तु ये समस्त घबराहटें मामूली हैं प्रतिदिन भकम्प की दुर्घटनाएँ नहीं हआ करतीं और ऐसी दुर्घटनाओं के समय भी यदि आपदापीड़ित इन्सान, इन्सान का दिल ले कर किसी उदारमना इन्सान के पास पहुँच जाता है तो वह प्रकृतिजनित दु:ख भी भूल जाता है । कभी-कभी इन्सान के ऊपर जंगली जानवरों के द्वारा भी दुःख लाद दिए जाते हैं। जैसे-कभी लकड़बग्घा बच्चे को उठा कर ले जाता है या भेड़िया बकरी-भेड़ को ले भागता है । परन्तु आजकल इन सारे उपद्रवों पर भी इन्सान ने विजय प्राप्त कर ली है; क्योंकि निर्जन स्थनों पर बड़े-बड़े नगर बस गए हैं, आवास की व्यवस्था ठीक-ठीक हो रही है और जंगली जानवर विवश हो कर जंगलों में अपना मुंह छिपाए पड़े हैं। फिर भी आज का मनुष्य दुःखों से पीड़ित है, अतः प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? ___ मानव-समाज के समस्त दु:खों का प्रमुख कारण मनुष्य की दुवृत्ति ही है । आज मानव-समाज में ही अनेक लकड़बग्घे और भयंकर भेडिए पैदा हो गए हैं । चारों ओर खूखार भेड़िए ही भेडिए नजर आते हैं। उनका शरीर तो मनुष्य का-सा अवश्य है, पर दिल मनुष्य का नहीं, हिंसक भेड़िये का है। मनुष्य में मनुष्योचित सद्भावना नहीं रही है । अभिप्राय यही है कि मनुष्य के भीतर जो क्रोध, मान, माया, लोम आदि वासनाएं हैं, वे गृहस्थ-जीवन को बिगाड़ रही हैं, साधुसमाज को भी समाप्त कर रही हैं और समाज एवं राष्ट्र को भी क्षीण कर रही हैं। सारांश यह है कि मनुष्य को मनुष्यकृत दुःख ही प्रायः सता रहे हैं ।। ___आप जब कभी दस-पाँच आदमी इकट्ठ बैठ कर आराम में बातें करते हैं और कभी किसी से उसके दुःख की बात पूछते हैं, तभी आपको दुःख का स्पष्ट अनुभव होता होगा। अपने विचारों की तराजू पर तौल कर देखिए कि प्रकृति-जन्य तथा हिंसक पशुओं द्वारा होने वाले दुःख उनमें से कितने हैं और मनुष्यों द्वारा पैदा किए हुए दुःख कितने हैं ? इस भेद को समझने में अधिक देर नहीं लगेगी कि--मनुष्य ही मनुष्य पर अधिकांश विपत्तियाँ लाद रहा है और दु:खों के पहाड़ ढहा रहा है । कोई कहता हैअमुक मनुष्य ने मेरे साथ विश्वासघात किया है ! एक बहन कहती है कि मेरे प्रति सास का व्यवहार अच्छा नहीं है, और प्रतिवाद में सास कहती है कि बहू का बरताव अच्छा नहीं है। इसी प्रकार पिता, पुत्र को और पुत्र, पिता की शिकायतें करते हैं। कहीं भाई-भाई के बीच दुर्व्यवहार की दुःखद कहानी सुनी जाती है । इस प्रकार जितने भी आदमियों से बातें करेंगे, उन सबसे यही मालूम होगा कि आदमी की आदमी से जितनी शिकायत है, उतनी कुदरत और वन्य-पशुओं से नहीं है । कथन का अभिप्राय यही है कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति आज जो व्यवहार है, वह संतोषजनक नहीं है, सुखप्रद नहीं है, बल्कि असंतोष, अशांति और दुःख पैदा करने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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