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________________ शोषण : सामाजिक हिंसा का स्रोत २६३ भी यदि उनमें गुण नही हैं तो उनकी प्रशंसा नहीं होती है। एक ओर चक्रवर्ती भरत की प्रशंसा से ग्रन्थ पर ग्रन्थ भरे पड़े हैं, किन्तु दूसरी ओर अर्ध-चक्रवर्ती रावण और चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भी हो गए हैं, जिन्हें अच्छाई की दृष्टि से नहीं देखा गया ; अपितु जीवन पतित होने पर नरक में जाने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है । उनमें प्रशंसायोग्य गुण नहीं आए, न न्याय एवं नीति ही आई और अपने पूरे जीवन में वे प्रजा के हित का एक भी कार्य नहीं कर सके । चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त जैन-साहित्य में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का वर्णन आता है। ब्रह्मदत्त भोग-परायण व्यक्ति था । चक्रवर्ती के सिंहासन पर बैठ कर भी अपने को तद्नुकूल ऊँचा नहीं उठा राका । उसका झुकाव जितना निज के पोषण में था, उतना प्रजा के पोषण में नहीं था। एक दिन जैन-जगत के प्रख्यात् महामुनि चित्त, ब्रह्मदत्त से मिले । उन्होंने चक्रवर्ती के समक्ष एक आदर्श रखा कि-"यदि तुम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम आर्य-कर्म तो करो, प्रजा के ऊपर तो दया करो । जिस प्रजा के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से तुम वैभवशाली महल खड़े कर रहे हो, उस प्रजा पर तो अनुकम्पा करो। यदि तुम प्रजा पर करुणा की एक बूंद भी बरसा सके, तो भी अगले जीवन में देवता बन सकोगे ! नरक और निगोद में नहीं भटकते फिरोगे ! इससे तुम्हारी जिन्दगी यहाँ, वहाँ सब जगह आराम से कटेगी। एक राजा अपनी प्रजा के लिए कल्याण-बुद्धि से काम करता है तो वह यहाँ और आगे भी परम अभ्युदय प्राप्त करता है। उसके चक्रवर्ती होने के नाते हम उसकी प्रशंसा या निन्दा नहीं करते हैं । हम तो केवल गुणों की प्रशंसा और दुर्गुणों की कटु आलोचना करते हैं । यदि कोई गरीब चोरी करता है, दुनियाभर की गुण्डागीरी करता है और बुराइयों से काम लेता है, न तो वह अपनी गरीबी को आनन्दपूर्वक स्वीकार करता है, और न विषम परिस्थितियों से न्यायपूर्वक संघर्ष ही करता है, ऐसी दशा में हम उसकी प्रशंसा कदापि न करेंगे ; उसके अन्याय, अनाचार और गुण्डापन की घोर निन्दा ही करेंगे। इन्सानियत का पाठ जैन-धर्म तो एक ही सन्देश ले कर चला है कि --तुमने संसार को क्या दिया १ जइ तंसि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाई कम्माइं करेह राय । धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकंपी, तो होहिसि देवो इओ विउव्वी ।। -उत्तराध्ययन २३, २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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