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अहिंसा-दर्शन
के कल्याण के लिए और अन्याय एवं अत्याचार के प्रतिकार के लिए था। राम की तलवार किसी सती स्त्री पर बलात्कार करने के लिए नहीं चमकी ।
सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाए तो पैसे वाले तो राम भी थे । वे भी सोने के सिंहासन पर बैठे और उनका जीवन भी शानदार महलों में गुजरा, राम को भी रावण के समान ही भोग-विलास के साधन मिले थे । फिर भी राम को आदर और सम्मान दिया जाता है ; वह इसीलिए कि उन्होंने इतनी बड़ी ऊंचाई को और राजसिंहासन को पाने के बाद भी अपनी सुख-सुविधा के साथ दूसरों के हित को भी समदृष्टि से देखा । उन्होंने दूसरों की आँसू से गीली जिन्दगियों को भी देखा और यह भी देखा कि यदि मैं राजा बना हूँ तो केवल अपने भोग-विलास के लिए, अपनी वासनाओं की क्ष द्र पूर्ति के लिए नहीं, अपितु प्रजा के कल्याण का गुरुतर उत्तरदायित्व. पूरा करने के लिए बना हूँ। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने अपने कर्त्तव्य का पालन किया और इसी कारण आज भी संसार उनका गुणगान करता है। वर्गवाद का विरोध
जैन-धर्म किसी भी प्रकार के वर्गवाद को प्रश्रय नहीं देता। जाति-पाँति के आधार पर, सम्पत्ति के आधार पर, या किसी भी अन्य भौतिकता के स्थूल आधार पर पनपते हुए वर्गवाद का वह पक्ष नहीं लेता । जैन-धर्म गरीब या अमीर की पूजा नहीं करता है ; और न उसकी निन्दा ही करता है । वह तो अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखता है और प्रत्येक वस्तु को उसी दृष्टिकोण से देखता और परखता है । वह अपने दृष्टिकोण के नाते उस धनवान् की प्रशंसा करता है, जो धन को प्राप्त करता है, या प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है ; किन्तु धन प्राप्त करते समय यदि न्याय और नीति को नहीं भुलाता और प्राप्त करने के बाद भी उसे न्याय-नीति से ही खर्च करता है ; जो इस धन को प्राप्त करके अपना ही हित-पोषण नहीं करता है, अपितु दूसरों की भलाई में भी उदारता-पूर्वक व्यय करता है । सम्पदा नहीं, सद्गुण
यदि एक गरीब है और उसके पास पैसा नहीं है, किन्तु उसका जीवन सुन्दर है और शानदार ढंग से गृहस्थ की गाड़ी चला रहा है; वह भले ही किसी परिस्थितिविशेष के कारण धनसंग्रह नहीं कर सका हो, किन्तु न्याय और नीति यदि उसके साथ है तो इस दशा में भी हम उसकी प्रशंसा करेंगे । ऐसे भी निस्सहाय लकड़हारे हो चुके हैं, जिनकी जिन्दगी का निर्वाह होना मुश्किल था, किन्तु उनमें अच्छाइयाँ थीं, जिसके कारण सन्तों ने उनकी गुणगाथा गाई है।
अभिप्राय यह है कि केवल धन होने से ही कोई प्रशंसा का पात्र नहीं बन जाता और न धन के अभाव में निन्दा का ही पात्र बनता है । इसी प्रकार निर्धन होने से ही कोई प्रशंसा या अप्रशंसा के योग्य नहीं हो जाता। जहाँ सद्गुणों के पुष्प हैं, वहीं प्रशंसा की सौरभ है । किन्तु धनवान् या चक्रवर्ती होने पर
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