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________________ पवित्रता से सामाजिक अहिंसा की प्रतिष्ठा २५१ किया है और उसके शुद्ध 'अहम्' को जगाया है । मानव जीवन के चारों तरफ जैन-धर्म की एक ही आवाज गूंज रही है 'आत्मा ही परमात्मा है और पवित्र आत्मा ही ईश्वर का साक्षात् रूप है । ' आत्मा से परमात्मा इस प्रकार जैन-धर्म ने मनुष्य को एक बहुत बड़ा आदर्श मन्त्र यह प्रदान किया है - " तू नीचे आने के लिए नहीं; अपितु ऊपर उठने के लिए है । तेरे भीतर असीम सम्भावनाएँ भरी हैं, असंख्य ऊँचाइयाँ विद्यमान हैं और तू आत्मा से परमात्मा बनने के लिए है । तेरे अन्तरतर में परमात्मा की दिव्य ज्योति जगमगा रही है । गलतियाँ करके तूने अपनी अन्तर्ज्योति पर धूल डाल रखी है । इसलिए वह दिव्यप्रकाश मन्द हो गया है । तेरा काम कोई नई चीज प्राप्त करना नहीं है । तुझे अपने अन्तःपट के ऊपर जमी हुई धूल को ही अलग कर देना है; और ज्यों ही वह धूल अलग होगी, तुझे जो पाना है वह अपने अन्दर ही प्राप्त हो जाएगा। वह बाहर से नहीं मिलेगा । तुझे यदि भगवान् महावीर बनना है तो बन सकता है; और महात्मा बुद्ध, राम या कृष्ण जो मी बनना है वही बन सकता है । बस, अन्तःपट पर जमी हुई धूल को विवेक झाड़न से झाड़ दे। निरालाजी ने भी कहा है कि मनुष्य अपने पास पड़ी हुई अमूल्य निधि पर ध्यान न दे कर नासमझ की तरह भटकता रहता है । '२ यह बात हमारे सामने प्रायः निरन्तर आती रही है कि जैन धर्म और भारतीय दर्शन ने मानव जाति के समक्ष बहुत बड़ी पवित्रता का भाव उपस्थित किया है । मनुष्य अपने असली स्वरूप को भूल गया था और अपनी दिव्यज्योति को उसने भुला दिया था । जैन धर्म ने पुकार कर कहा - 'तू जीवन की सही पगडंडी को पहचान ले और उस पर बडा चल, कहां है ?” राह- भूला राही वस्तुतः मनुष्य एक राह भूला राही है । परन्तु उन भूलों की नीची तह में अनन्त ज्योतिर्मय चेतना का जो पुञ्ज दबा पड़ा है, उससे यदाकदा पवित्रता की श्रेष्ठ और सुन्दर ध्वनि उठा करती है। दुर्भाग्य से मनुष्य उस आवाज को सुन कर भी गलत समझ लेता है । वह अपने पुरुषार्थ से और सत्प्रयत्नों से ऊँचा उठने की चेष्टा तो कम करता है, किन्तु दूसरों को नीच और उनकी तुलना में अपने को उच्च समझने की उत्कट कामना करता है । इसी भूल ने जाति-पाँत की भावना को पैदा किया है । वर्ग को ऊँचा और दूसरे वर्ग को नीचा समझने की भ्रामक प्रेरणा दी इसी भूल एक १ २ 'अप्पा सो परमप्पा ।' " पास ही रे हीरे की खान, खोजता उसे कहाँ नादान ?" Jain Education International राह का भूला हुआ राही है । फिर तो तेरी मंजिल दूर For Private & Personal Use Only निराला www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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