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________________ २५० अहिंसा-दर्शन अभाव रहता है। फलतः मानव की यह हीन वृत्ति अभीष्ट लक्ष्य की ओर दृढ़ता से कदम बढ़ाने में सदैव बाधक होती है । अहम् ___ मनुष्य के भीतर जो 'अहम्' है अथवा 'मैं' है, वह स्वयं आत्मा है । आप 'अहम्' को अलग नहीं कर सकते, 'मैं' को त्याग नहीं सकते 'अहम्' को त्याग करने का विचार करने वाला तो आत्मा है, और आत्मा भला आत्मा का त्याग कैसे कर सकता है? त्याग करने वाला और जिसे त्याग करना है, अर्थात्-त्यागी और त्याज्य वहाँ दोनों एक ही हैं । अतएव अपने 'अहम्' को त्यागना न तो शक्य है, और न वांछनीय ही है । अपने आपको उत्कृष्ट समझने की बुद्धि शुद्धरूप में यदि आपके अन्दर उत्पन्न हो जाएगी, तो वह आपके जीवन में अनेक अच्छाइयों का स्रोत बहा देगी। किन्तु जब वही 'अहम्' विकृत और दूषित रूप में आपके अन्दर उदित होता है तो आपको गिरा देता है । अपने आपको श्रेष्ठ समझने के कारण जब अपनी उच्चता का प्रदर्शन करने के लिए दूसरों को नीचा समझने की वृत्ति अन्तःकरण में उत्पन्न हो जाती है और तदनुसार दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, और फलत: उनको अपवित्र भी मान लिया जाता है, तो समझना चाहिए कि 'अहम्' शुद्ध रूप में नहीं जगा है। वह पूर्णतः विकृत और दूषित हो गया है। वह जीवन को ऊंचा नहीं उठाएगा और पवित्र भी नहीं बनाएगा। जब कोई दूसरों को नीचा समझ कर ही अपनी उच्चता मान लेता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसके अन्दर अपनी कोई उच्चता नहीं है और मनमानी उच्चता पर उसने अपने को संतुष्ट कर लिया है। बस, वही संतोष उसका प्रबल शत्रु है । वह अपने आपको आगे बढ़ने से रोकता है और ऊँचा भी नहीं चढ़ने देता । अतः निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि उसके जीवन में उच्चता और अपवित्रता यदि सचमुच आने वाली है तो वह दूसरों को नीच और अपवित्र समझने से कभी नहीं आएगी; बल्कि वह स्वयं नीचे गिरता जाएगा और एक दिन अपने आप को अधःपतन के गर्त में पाएगा। आत्म-विश्वास ___ जैन-धर्म मनुष्य के सामने सदैव यही सन्देश रखता आया है---"मनुष्य ! तू अपने को पवित्र समझ और श्रेष्ठ मान ! तू, संसार में भूलने, भटकने के लिए नहीं आया है ! तेरा जीवन रेंगते और रगड़ खाते चलने के लिए नहीं है । तू, संसार में बहुत श्रेष्ठ बनकर आया है ! अनन्त-अनन्त पुण्यों का संचय होने पर ही तूने मानव का रूप पाया है। तुझे मानव-जीवन की जो पवित्रता प्राप्त हुई है वह इतनी महान् और दिव्य है कि देवताओं की पवित्रता भी उसके सामने नगण्य है।" अस्तु, जैन-धर्म ने आत्म-विश्वास का यह संदेश दे कर मनुष्य के अन्दर से तुच्छ दीन, हीन और अपने को कुछ भी न समझने की वृत्ति को निकालने का सफल प्रयत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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