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जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत
बल पर ही उन्होंने सफलता पाई थी । वे अहिंसा और सत्य के आदर्श आचरण के द्वारा ही महत्ता, गुरुता, उच्चता और पवित्रता को प्राप्त कर सके थे । जन्म से किसी को पवित्रता और उच्चता प्राप्त नहीं हुई, और हो भी कैसे सकती है ? साधना के सिवाय महत्ता प्राप्त करने का और कोई मार्ग नहीं है ।
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जो लोग अमुक कुल में जन्म लेने मात्र से पवित्रता प्राप्ति के भ्रम में हैं, वे अपने आपको और दूसरों को भी धोखे में रखते जो धन को ही उच्चता प्राप्त करने का साधन मानते हैं, वे भी गलत मार्ग पर चल रहे हैं । इन गलत विचारों का नतीजा यह हुआ है कि समाज से उच्च चारित्र का प्रायः लोप- सा हो गया है और जन-जीवन से सदाचार और सत्य के चिन्ह भी धूमिल हो गए हैं। आज एक ही व्यापक मनोवृत्ति सर्वत्र दिखाई दे रही है और वह यह कि -- यदि बड़ा बनना है तो खूब धन कमाओ, तिजोरियाँ और तहखाने भरो ! जो जितनी बड़ी धनराशि का स्वामी होगा, उतना ही बड़ा माना जायेगा !! इस तरह परमात्मा की उपासना का तो केवल नाम रह गया है और सर्वत्र धन की उपासना होने लगी है; चाहे न्याय से मिले या अन्याय से, किसी की जेब काटने से मिले या गला घोंटने से; बस, धन मिलना चाहिए । यदि धन मिल गया तो बड़प्पन मिल गया; समाज में और बिरादरी में सम्मान बढ़ गया और ऊँचा आसन भी प्राप्त हो गया। इस प्रकार धन ने आज भगवान् का आसन छीन लिया है। और पूँजी ने प्रभु का रूप धारण कर लिया है। वस्तुतः भगवान् का नाम ले कर लोग घन की ही उपासना में लीन हो रहे हैं ।
उच्चता को नापने का आधार : धन
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समाज में जो गुरुकुल, विद्यापीठ, विद्यालय या विश्वविद्यालय चल रहे हैं, उनका मुख्य उद्देश्य विद्या प्रसार के द्वारा अविद्या का उन्मूलन करना है, जिससे कि मानव समाज सभी प्रकार के दुराचारजन्य सामाजिक अपवादों से सर्वथा मुक्त हो कर मनुष्यत्व की अभिवृद्धि, व्यक्तित्व का विकास तथा चारित्र का निर्माण कर सके । सत्शिक्षा के द्वारा जब मनुष्य तथाकथित सद्गुणों का समुचित संग्रह कर लेता है, तब उसकी अन्तःप्रेरणा धार्मिक अनुष्ठान की ओर स्वतः प्रेरित हो जाती है । परन्तु उनके प्रबन्ध-अधिकारी भी धन की पूजा से ऊँचे नहीं उठ पाते । जब कभी इन शिक्षा-संस्थाओं में कोई उत्सव या समारोह होता है तो सर्वप्रथम पूँजीपतियों की तरफ ही अधिकारी वर्ग की याचक - दृष्टि दौड़ती है । सभापति बनाने में शिक्षा - ज्ञान को कोई मापदण्ड नहीं बनाता । यह जानने की कोई परवाह भी नहीं करता कि वह जनता को क्या देने चला है या सिर्फ धन की ही आग ले कर खड़ा है ! आज बड़प्पन के नाप-तौल का एकमात्र मापक धन रह गया है। जिसके पास ज्यादा धन है, वही ज्यादा बड़ा है । हजार बार प्रयत्न करके शिक्षा-संस्थाओं के अधिकारी उसी धनिक के पास जाएँगे, उसे ही सभापति बनाएँगे । उसके आचरण के सम्बन्ध में कुछ मालूम भी नहीं करेंगे और यहाँ तक कि उसके सम्पूर्ण दुराचरणों पर पर्दा डाल देंगे, उसके समस्त दुर्गुणों को प्रशंसा के फूलों के ढेर से ढँक देने की भरसक कोशिश करेंगे ।
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