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________________ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत २३६ स्वर्ग में इसलिए ले जाना चाहते थे कि वह प्रभु की भक्त है । वह तोते को 'राम-राम' रटाती रही है, अतः उसकी सीट स्वर्ग में रिजर्व हो चुकी है। इस प्रश्न को ले कर दोनों तरफ के दूतों में संघर्ष हो गया। यम के दूतों ने कहा- 'तुम करते क्या हो ? पागल तो नहीं हो गए ? अरे यह तो वेश्या है, दुराचारिणी है ! भला, इसको स्वर्ग में कौन बुला सकता है ?' विष्णु के दूत कहने लगे-'इस वेश्या ने जो अनगिनत 'राम-राम' बोला है; क्या वह सब व्यर्थ ही जाएगा ? राम के भक्तों के लिए तो स्वर्ग में स्थान निश्चित है, नरक कदापि नहीं । भगवान् विष्णु इसे स्वर्ग में बुला रहे हैं।' यमदूत बोले-'तुम बड़े नादान मालूम होते हो ! इसने 'राम-राम' कहाँ जपा है ? यह तो सिर्फ तोते को ही रटाती रही है और वह भी इसलिए कि इसका अनैतिक व्यवसाय सफलता के साथ चलता रहे ! यदि तुम इतने सस्ते भाव में आदमी को स्वर्ग में ले जाओगे तो स्वर्ग को भी नरक बना डालोगे ।' __आखिर, यम के दूतों और विष्णु के दूतों में संघर्ष छिड़ गया । किन्तु विष्णु के दूत बलवान् थे, अतः उन्होंने यम-दूतों को भगा दिया और वेश्या को स्वर्ग में ले गए । इस कथानक की पुष्टि में कहा भी गया है "सुआ पढ़ावत गणिका तारी।" इसी तरह किसी तीर्थ में पहुँचने मात्र से यदि स्वर्ग मिल जाए तो फिर कोई कर्त्तव्य क्यों करे ? मुंह से भगवान् का जरा नाम ले लिया और स्वर्ग में सीट रिजर्व हो गई ! बस, छुट्टी पाई, कैसा सीधा और सस्ता उपाय है। धर्म और स्वर्ग जब इतने सस्ते हो जाएँ, तब कौन उनके लिए बड़ा मूल्य चुकाए ? क्यों प्रबल पुरुषार्थ किया जाए ? साधना का संकट भी कोन झेले ? मानव-समाज में यह जो भ्रमपूर्ण धारणा फैली हुई है, उसी का यह परिणाम हआ कि पवित्रता स्वयं नीचे गिर गई और पवित्रता के स्थान पर मनुष्यों के हृदयों में, अहंकार, द्वेष, घृणा आदि विकार पैदा हो गए। इसके लिए भगवान् महावीर स्पष्ट शब्दों में कहते हैं----"तुम जो संस्कृत-भाषा और प्राकृत-भाषा आदि के मनचाहे फब्बारे अपने मुख से छोड़ रहे हो और यह समझ भी रहे हो कि इनका पाठ कर लेने मात्र से ही मोक्ष मिल जाएगा, वस्तुत: यह एक भ्रान्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सारे संसार की नाना प्रकार की विद्याएँ और भाषाएँ सीख लेने पर भी तुम्हारा परित्राण नहीं हो सकता। यदि तुम कल्याण चाहते हो और निर्वाण पाने की उत्कट अभिलाषा भी रखते हो तो तुम्हें सदाचरण करना पड़ेगा ।२ एक उदाहरण देखिए २ भणंता अकरेन्ता य, बन्ध-मोक्ख-पइण्णिणो । वायावीरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं ।। न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पाव-कम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ।। -उत्तराध्ययन ६, ६-१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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