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________________ वर्ण-व्यवस्थागत सामाजिक हिंसा २०६ अपने स्वार्थ का होता है। अपनी बुद्धि की तराजू पर, अपने स्वार्थ के बांटों से तोलने वाला कब न्याय-अन्याय को सही तौर पर तोल सकता है ? वह न्याय की रक्षा नहीं कर सकता और न उचित-अनुचित का विवेक के साथ विश्लेषण ही कर सकता है । इसीलिये समाज की स्थापना के साथ ही साथ राजनीति का भी प्रवेश हुआ। सबलों द्वारा निर्बल पीड़ित न किए जाएँ, दुर्बलों को भी जीवित रहने का उतना ही अधिकार है जितना कि बलवानों को, अतः उनकी समुचित रक्षा की जाए। इसी प्रयोजन से क्षत्रिय-वर्ग की स्थापना हुई और राजा उनका संरक्षक बन कर आया, पहरेदार के रूप में उसने आपको प्रस्तुत किया। क्षत्रिय-वर्ग और उनका मुखिया 'राजा' महलों में बैठ कर ऐश-आराम करने के लिए नहीं था, अपितु इसलिए था कि देश के किसी भी कोने में जब अत्याचार होता हो और कोई वर्ग किसी दूसरे वर्ग द्वारा कुचला जाता हो तो वह अपने प्राणों की आहुति दे कर भी उसकी रक्षा करे । क्षत्रियों की स्थापना में यही दृष्टि प्रमुख थी। महाकवि कालिदास ने भी यही कहा है-3 इसके बाद वैश्य-वर्ग स्थापित हुआ। वह इसलिए नहीं कि दुनियाभर का शोषण करके अपने ही पेट को मोटा बनाए और दुनिया की जेब खाली करके अपनी ही जेब भरता रहे। उसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य यह था कि प्रजा को जीवननिर्वाह की सामग्री सर्वत्र सुलभता से उपलब्ध हो। कोई वस्तु कहीं बहुतायत से पैदा होती है, कहीं कम, या कहीं होती ही नहीं है । जहाँ जो चीज बहुतायत से होती है वहाँ वह उपभोग के बाद भी पड़ी सड़ती रहती है, और जहाँ पैदा नहीं होती वहाँ के लोग उसके अभाव में असुविधा अनुभव करते हैं और कष्ट सहते हैं। इस विषम परिस्थिति को दूर करना और यथावश्यक सुविधाएँ सर्वत्र सुलभ कर देना, वैश्य-वर्ग का कर्तव्य था। इस कर्तव्य का प्रामाणिकता के साथ पालन करते हुए अपने और अपने परिवार के निर्वाह के लिए वह उचित पारिश्रमिक ले लिया करता था । वैश्यवर्ग की स्थापना में यही मूल उद्देश्य सन्निहित था । चौथा शूद्र-वर्ग था, जिसका कार्य भी बड़ा महत्त्वपूर्ण था। समाज की सेवा करना ही उसका दायित्व था। उसकी सेवा की बदौलत समाज स्वस्थ रहता था और प्रजा का जीवन सुख-सुविधा के साथ व्यतीत होता था। शूद्र-वर्ग की स्थापना में किसी प्रकार की मानसिक संकीर्णता तथा हीन भावना काम नहीं कर रही थी। तब फिर यह कल्पना की जा सकती है कि वर्ण-व्यवस्था कायम करते समय शूद्र-वर्ग को यदि किसी भी अंश में अन्य वर्गों की तुलना में हीन माना गया होता, तो फिर कौन इस वर्ण-व्यवस्था में सम्मिलित होने को तैयार होता? वस्तुतः उन समाजस्रष्टाओं में ऐसी कोई विकृत भावना नहीं थी। जैसे अन्यान्य वर्ग समाज की सुविधा के उद्देश्य से ३ क्षतात् किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । -रघुवंश महाकाव्य www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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