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________________ वर्ण-व्यवस्थागत सामाजिक हिंसा अब तक हिंसा और अहिंसा की जो व्याख्या की गई है, वह जीवों की प्रत्यक्ष हिंसा-अहिंसा को ले कर की गई । अब हम एक दूसरे प्रकार की यानी परोक्ष हिंसा और अहिंसा पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे । परोक्ष या सामाजिक हिंसा हिंसा के दो प्रकार हैं-(१) प्रत्यक्षहिंसा और (२) परोक्षहिंसा। प्रत्यक्ष हिंसा मनुष्य की समझ में जल्दी से आ जाती है, जब वह सोचता है कि आज एकेन्द्रिय से लगा कर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से कौन और कितने मेरे हाथों से मारे गए हैं ? किन्तु दूसरे प्रकार की जो परोक्ष हिंसा है, उसका रूप बड़ा व्यापक है और उसके सम्बन्ध में शीघ्र कल्पना नहीं की जा सकती है। प्रायः उसकी तरफ ख्याल भी नहीं जाता। उसकी गहराई को लोग समझ भी कम ही पाते हैं। इस परोक्षहिंसा की ओर ध्यान दिलाने के उद्देश्य से ही इस नए प्रकरण का प्रारम्भ किया जा रहा है, जिसे सामाजिक हिंसा कहना उपयुक्त होगा। ___ कदाचित् पाठकों को यह शब्द नवीन-सा प्रतीत होगा और वे सोच सकते हैं कि यह कौन-सी नयी हिंसा आ टपकी है ? किन्तु हिंसा का रूप एक नहीं है । हिंसा के विविध रूप हैं और अलग-अलग अगणित प्रकार हैं। हम ज्यों-ज्यों उन पर चिन्तन और मनन करेंगे, त्यों-त्यों जैनधर्म के अहिंसा-सम्बन्धी विचारों की सूक्ष्मता एवं व्यापकता का हमें ज्ञान होता जाएगा। तभी हम समझ सकेंगे कि जैन-धर्म विचारों की कितनी गहराई तक पहुँचा है । ___सामाजिक हिंसा का मतलब क्या है ? भारत का समाज और सामाजिक जीवन क्या है ? वह कैसे बना है ? जमीन के अनेक टुकड़ों को समाज नहीं कहते । मकानों का, ईंटों का या पत्थरों का ढेर भी समाज नहीं कहलाता; और न गली-कूचे का, या दूकान का या सड़क आदि का नाम ही समाज है। व्यावर का समाज या दिल्ली का समाज जब कहा जाता है तो उसका अभिप्राय होता है-व्यावर या दिल्ली में रहने वाला मानव-समुदाय । एक समाज का दूसरे समाज के साथ कैसा व्यवहार है ? कैसी पारस्परिकता है–सम्बन्ध मीठा है या कड़वा ? एक जाति का दूसरी जाति के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ और एक मुहल्ले का दूसरे मुहल्ले के साथ घृणा और द्वेष का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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