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मानवता का भीषण कलंक
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जड़ों में जम गया है । फलतः इसका पूरी तरह परिमार्जन करने के लिए बहुत बड़ी क्रान्ति की अपेक्षा है। इस जटिल प्रश्न को हल करने के लिए गाँधीजी को अपना बलिदान देना पड़ा । गोडसे के साथ उनका कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं था, किन्तु दूसरी जाति वालों से प्रेम करने के कारण ही उन्हें गोली का शिकार बनना पड़ा । गाँधीजी ही नहीं, हमारे अनेक पूर्वजों को भी इसी प्रकार के अनेक आत्म-बलिदान देने पड़े हैं।
हमारे अनेक साथी साधुओं में जातिगत या सम्प्रदायगत विचार घर किए हुए हैं, फलतः वे भी इन सामाजिक संकीर्णताओं में फंसकर जातिवाद का कट्टर समर्थन करते है । हमें उनके विचारों को मांजना है ।
इस प्रकार की घृणा और द्वेष की भावना को जातिगत, वर्गगत, सम्प्रदायगत और समूहगत हिंसा का रूप दिया गया है। मनुष्य को मनुष्य के रूप में न देख कर जात-पात के नाते घृणा और द्वेष की संकुचित दृष्टि से देखना, हिंसा नहीं तो और क्या है ? इन्सान की आँखें
कभी-कभी मनुष्य अपने दैनिक नीतिमय व्यवहार में भी उक्त जातीय विचारों के कारण भ्रमित हो जाता है । एक बालक ठोकर खा कर रास्ते में गिर पड़ता है और एक व्यक्ति उसे उठाने चलता है। जब उसके ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि उच्च होने का पता चलता है, तब तो वह उसे खुशी-खुशी उठा लेता है, परन्तु जब उसे यह मालूम होता हैं कि यह तो भंगी का बालक है तब उसका मन दुविधा में पड़ जाता है । वह उसे उठाए या नहीं ? यदि कोई ऐसा उदारमना भाग्यशाली है, जो उसे उठा लेता है तो वह निश्चित ही आदर का पात्र है, ऐसा समझा जा सकता है, उसकी आँखों में मनुष्य की दृष्टि है। किन्तु जहाँ इन्सान की आँखें नहीं हैं, वहाँ आदमी दुविधा का शिकार हो जाता है और सोचने लगता है कि क्या किया जाए और क्या न किया जाए ?
कोई कष्टपीड़ित या आपत्तिग्रस्त है, और दूसरा उसका उद्धार करने चलता है, किन्तु यदि वह जात-पाँत को पूछ कर चलता है, तब तो वह उसके कष्ट को कभी नहीं देख सकेगा, उसकी जात-पात को ही देख पाएगा । क्योंकि यह ऐसी विषमता है, जिसने हमारे सामाजिक जीवन को एक सिरे से दूसरे सिरे तक विकृत कर दिया है । इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर का विचार एकदम स्पष्ट था। वे तो गुणों की पूजा करने वाले गुणग्राही थे, जाति की पूजा करने वाले नहीं। उनके पास ब्राह्मण आता है और यदि वह योग्य है तो उसका स्वागत होता है, क्षत्रिय है और उसमें गुण हैं तो उसका भी आदर होता है, और यदि कोई साधारण जाति में जन्म लेने वाला शूद्र या अछुत है, किन्तु अहिंसा और सत्य की सुगन्ध उसके जीवन में महक रही है तो शास्त्रकार कहते हैं कि मनुष्य तो क्या देवता भी उसके चरण छूने को लालायित हो उठते हैं । अस्तु, देवता भी उसके लिए जय-जयकार के नारे लगाते हैं। और स्वयं भगवान् महावीर ने भी ऐसे लोगों का हृदय से स्वागत किया है ।
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