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________________ १९८ अहिंसा-दर्शन कुतर्क का घी डाल कर बुझती शिखा को अधिक प्रज्वलित कर देते हैं । इस प्रकार जाति के नाम पर हिंसा होती है और इस पर हम सोचते हैं कि जो लोग अपने जातिबान्धवों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करते हैं और उनसे लड़ते हैं, वे छह करोड़ शूद्रों या अछूतों के साथ इन्सानियत का सद्-व्यवहार किस प्रकार कर सकेंगे ? धूत-अछूत भगवान महावीर ने जो कठिन साधना की और जब परिवर्तन का प्रवाह आया, तब बड़े-बड़े पुरोहितों ने अपनी उच्चता का अहंकार छोड़ दिया और भगवान् के चरणों में आ कर सारे भेदभाव भुला दिए । उनके दिलों में अपार करुणा प्रवाहित हो गई ; दया का सागर लहराने लगा। किन्तु खेद है कि उस महान् तत्त्व को आगे चलकर स्वयं जैनों ने भी नहीं पहचाना, फिर दूसरों का तो कहना ही क्या ? दूसरों ने तो इस दिशा में हमारा सदैव विरोध ही किया है और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लोभवश अछूतों का पक्ष लेने के कारण हमें भी एक प्रकार से अछूत करार दे दिया गया है। एक समय की घटना है । मैं एक जगह ठहरा हुआ था। पास ही एक हलवाई की दूकान थी । वहाँ एक कुत्ता आया और मिष्टान्नों में मुह लगाने लगा तो हलवाई ने डंडा उठाया और कहा-'दूर हट सरावगी !' यह शब्द सुन कर मैंने विचार किया -यह 'दूर हट सरावगी' क्या चीज है ? और इस हलवाई के मन में यह अप-प्रेरणा क्यों आई ? मेरा मन इतिहास के पन्ने उलटता गया। तब अन्त में मालूम हुआ कि किसी जमाने में हमने अछूतों के पक्ष में नारा लगाया था और कहा था कि इन्सान के साथ इन्सान का-सा व्यवहार होना चाहिए। इस पर हमें भी अछूत ही करार दे दिया गया था और सरावगी (श्रावक) को कुत्ते की पशु-श्रेणी में रखा गया था। जब आप गहराई में उतर कर इस विषय में सोचेंगे तो मालूम होगा कि आप अपने को भले ही ऊँचा समझते हों, परन्तु दूसरे लोग आपको भी धृणा की दृष्टि से देखते हैं, अपवित्र समझते हैं और चौके में बिठाने से परहेज करते हैं। यहाँ तक कि हम साधुओं को भी चौके में नहीं जाने देते । दिल्ली जैसे शहरों से दूर किसी देहात में जाने पर यही सुनना पड़ता है “अलग रहिए महाराज, हम बाहर ही ला कर दे देंगे।" ___ जब इस प्रकार की विपरीत भावनाएँ नित्यप्रति देखने को मिलती हैं, तो हम सोचते हैं कि इसमें जनता का दोष नहीं है । हम स्वयं भी तो इन्हीं संकीर्ण भावनाओं के शिकार हैं। यहाँ तक कि आप जिन्हें नफरत की निगाह से देखते हैं, वे भी छूत-अछूत के भेदभाव से भरे हुए हैं । आप छोटी जाति से घृणा करते हैं और वह छोटी जाति भी अपने से छोटी समझी जाने वाली जाति से घृणा करती है। इस दुःखद दृश्य को देखकर हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है । देखा जाता है कि एक ऐसा रोग है, जो ऊपर से नीचे तक फैल गया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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