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हिंसा की विधेयात्मक त्रिवेणी
पच्चीस सौ वर्ष पूर्व के भारत में हिंसा का उतना क्रूर और नग्न ताण्डव तो नहीं था कि मनुष्य के जीवन और विकास की संभावनाएँ ही समाप्त हो जाएँ, किन्तु राष्ट्रीय जीवन जैसा चाहिए, वैसा शान्त नहीं था । एक राज्य दूसरे राज्य के प्रति सदा आशंकित और भयभीत रहता था । अवन्ती का चम्डप्रद्योत जैसा तानाशाह अपनी असीम राज्य - लिप्सा और काम-लिप्सा के लिए उस समय पूरे पूर्व-दक्षिण भारत में बदनाम था । मगध, वत्स, पांचाल और सिन्धु- सौवीर तक के राजवंशों के साथ उसके युद्ध और आक्रमण की घटनाएँ अनेक बार घट चुकी थीं।
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इधर मगध का महत्त्वाकांक्षी कूणिक भी अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके राज-सिंहासन पर बैठा । और कुछ ही दिनों बाद उसने वैशाली - गणराज्य के साथ वह भयंकर युद्ध छेड़ा कि उस समय के दक्षिण-पूर्व भारत का अपार वैभव युद्ध की लपटों में स्वाहा हो गया ।
निरयावलिका और भगवती आदि सूत्रों से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर ने इन युद्धों का विरोध किया था । युद्धोन्माद में पागल होने वाले सैनिकों की इस अन्ध राष्ट्र भक्ति को भी उन्होंने खुल कर चुनौती दी थी कि "युद्ध में मृत्यु प्राप्त करने वाला स्वर्ग में जाता है ।"
वे जन्मत: राजकुमार थे, किन्तु राजाओं की इस अनियन्त्रित युद्ध - लिप्सा के साथ सदा उनका विरोध रहा । अनेक राजा व गणाधिनायक उनके भक्त भी थे, किन्तु उन्होंने उनकी नीति के साथ कभी भी सहमति नहीं की; अपितु कुछ बातों में तो सदा अपना असहयोग ही प्रगट करते रहे । राजवंशों के साथ मधुर-असहयोग का ही एक उदाहरण है कि उन्होंने कभी भी राजाओं के घर पर भिक्षा ग्रहण नहीं की । भिझुओं को भी उन्होंने राज- पिण्ड ग्रहण करने का निषेध कर दिया । बिना किसी विशिष्ट हेतु के राज-महलों में भिक्षुओं का आना-जाना भी निषिद्ध था ।
और युद्ध से भी बड़ी आशंका यह थी कि मनुष्य नित्य प्रति के अपने साधारण सामाजिक जीवन में भी आश्वस्त नहीं था । एक-दूसरे की हत्या, अंग-छेदन और धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण नरबलि, पशुबलि आदि के रूप में हिंसा के क्रूर दृश्य मानवीय चेतना को कम्पित करते रहते थे । महावीर ने यज्ञवाद का निरन्तर विरोध किया । यज्ञों में होने वाली नरबलि व पशुबलि को उन्होंने ब्राह्मण का कर्म नहीं, किन्तु म्लेच्छकर्म ( अनार्यकर्म ) कहा । जब देखा कि मानव की अवस्था यज्ञ के
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