________________
१३४
अहिंसा-दर्शन
तो यह कहते हैं कि यह वृत्ति दोषपूर्ण है । वे दवा लेने की आज्ञा अवश्य देते हैं, किन्तु इसलिए नहीं कि तुम्हें शरीर-रक्षा के लिए औषधिसेवन करता है। उनका अभिप्राय तो यह है कि यदि दवा नहीं लोगे तो शरीर में बीमारी फैलेगी और एक दिन वह तुम्हें बुरी तरह जकड़ लेगी। इतना ही नहीं, आखिर तुम अपना सन्तुलन भी खो बैठोगे । फलतः तुम्हें आर्त-ध्यान होगा, रौद्रध्यान भी होगा और अनेकानेक दुस्संकल्प भी होंगे। इस दुराशापूर्ण विषम स्थिति से बचने के लिए ही दवा ली जाती है।
इस प्रकार यदि हम सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो ज्ञात होगा कि भविष्य की हिंसा को रोकने के लिए प्रतिलेखन किया जाता है, प्रमार्जन भी किया जाता है किन्तु यह सब क्षणभंगुर जीवन की लोलुपता से नहीं, अपितु आगे होने वाली विराट हिंसा को रोकने के लिए किया जाता है।
जैन-धर्म अहिंसा के विषय में जो इस प्रकार विवेचन करता है और अहिंसा की दृष्टि को सामने रख कर प्रवृत्ति का विधान प्रस्तुत करता है; उसका मन्तव्य प्रवृत्ति का पूरी तरह परित्याग करना नहीं है, अपितु जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में अहिंसक दृष्टिकोण पैदा करना है। जीवन-व्यापार में प्रवृत्ति में कोई अविवेक या भूल होती है तो उसी के लिए 'मिच्छामि-दुक्कडं' दिया जाता है। इस प्रकार अब यह पूर्णतया स्पष्ट समझा जाना चाहिए कि 'अहिंसा' केवल निवृत्ति में ही नहीं है, अपितु प्रवृत्ति में भी विद्यमान है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org