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________________ १३२ अहिंसा-दर्शन विवेकयुक्त चलना ही गति-क्रिया की पवित्रता है । और उसके अनुसार ऐसी कोई भिन्नता भी नहीं है कि साधु देख कर चल रहा है तो उसे धर्म होगा और अन्य किसी से नहीं होगा ? देख कर चलने पर साधु की भाँति सामान्य व्यक्ति को धर्म होगा, निर्जरा होगी। आवश्यकतानुसार साधारण व्यक्ति घर की चीजें इधर से उधर रखते हैं और साधु भी अपनी वस्तुएँ यथास्थान रखता है, तो क्या पात्र आदि को संयमित ढंग से इधर से उधर रखने में साधु को ही धर्म होगा और दूसरों को नहीं ? कदापि नहीं। यदि विवेक रखा जाए और जीव-दया की सद्भावना स्थिर की जाए तो साधु के समान अन्य लोगों को भी निर्जरा अवश्य होगी। जैन-धर्म का विधान है कि यदि अहिंसा की भावना रखी जाए, प्रतिक्षण मन के अन्दर दया की झंकार उठती रहे और इस प्रकार जीवन समितिमय हो कर चलता रहे तो बाहर में कार्य की मात्रा 'एक' होने पर भी फल 'दो' मिल जाएँगे, अर्थात् व्यक्ति के दैनिक व्यवहार की सामग्री भी सुरक्षित रहेगी और साथ-साथ वह अहिंसा का अमृत भी पीता जाएगा । इस सम्बन्ध में कहा गया है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यदि अहिंसा को लूली-लँगड़ी और एक कोने की दर्शनीय वस्तु बना कर रखने से वह जी नहीं सकती। निश्चय ही वह सड़ेगी और गलेगी। उसे क्रियात्मक रूप में जीवन के हर क्षेत्र में ले जाइए । यदि चलना है तो अहिंसा को उसमें जोड़ दीजिए । आप जीवन के जिस किसी भी क्षेत्र में जो भी प्रवृत्ति कर रहे हैं, उस प्रवृत्ति के साथ अहिंसा के संकल्प को संयुक्त कर दीजिए । फिर देखिए आपकी प्रवृत्ति में एक नया जीवन और नया प्राण आ जाएगा । अपनी अन्तरंगवृत्ति को पवित्र बना डालिए, निर्जरा अवश्य होगी। यदि किसी प्रवत्ति में अहिंसा की दृष्टि नहीं जोड़ी गई है, तो वह हिंसा ही कहलाएगी, चाहे उसके कारण हिंसा हो रही हो या नहीं हो रही हो । क्योंकि प्रमादभाव स्वयं एक प्रकार की हिंसा है, और अप्रमाद-भाव अहिंसा है। आत्मरक्षा इसी सम्बन्ध में एक सुन्दर प्रकरण भी है-वर्तमान की अहिंसा के संतुलन में भविष्य की जो बड़ी हिंसा आने वाली है, उसे निमंत्रण दिया जाए या नहीं ? आचारांगसूत्र में एक प्रसंग आया है ।११-एक पंच-महाव्रतधारी साधु है, जो विहार कर रहा है । पहाड़ों के बीच से एक सँकड़ी पगडंडी है। वह देख-देख कर चल रहा है, किन्तु अचानक ठोकर लग जाती है, पैर लड़खड़ा जाते हैं और वह गिरने लग जाता है । गिरते समय साधु क्या उपाय करे ? यदि वहाँ कोई वृक्ष है तो उसे पकड़ ले, बेल है तो उसे पकड़ ले और यदि कोई यात्री आ-जा रहे हों तो उनके हाथ के १० 'एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा' ११ देखिये आचारांगसूत्र २, ३, २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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