SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-२ १३१ कहीं दाल में चीटियाँ घूम रही हैं ! दूसरी बहन विवेक के साथ सब चीजों को व्यवस्थित रूप में रखती है। सबको भलीभाँति ढक कर सही तरीके के साथ रखती है। ऐसी व्यवस्था करने में भी एक वृत्ति तो यह हो सकती है कि मेरी चीजें खराब न हो जाएँ और दूसरी वृत्ति यह हो सकती है कि जीवों की हिंसा न हो जाए, किसी प्रकार की अयतना न होने पाए। सावधानी दोनों जगह रखी जाती है, किन्तु दोनों में आकाश और पाताल के अन्तर जैसा बहुत बड़ा अन्तर है। पहली व्यवस्था में वृत्ति में मोह है, ममत्व है और स्वार्थ है । दूसरी व्यवस्था में वृत्ति में जीवों पर दया है, अनुकम्पा है। बस इसी भावना के भेद से ही तो फल में भी भिन्नता आती है । जहाँ मोह, ममता और स्वार्थ है वहाँ कर्म-बन्ध है ; और जहाँ अनुकम्पा है, वहाँ धर्म है, निर्जरा है । अस्तु, जैन-धर्म कहता है कि अनुकम्पा की भावना से यतना करने पर भी चीज तो सुरक्षित रहेगी ही; फिर व्यर्थ ही मोह-ममता रख कर साधना के उच्चशिखर से नीचे क्यों उतरते हो ? काम करते समय, निर्जरा-भाव की जो पवित्रगंगा बह रही है, उससे क्यों वंचित होते हो ? चीजें यदि अव्यवस्थित रहेंगी तो खराब होगी, उनमें मक्खियाँ गिरेंगी और कष्ट पाएँगी, चीजें सड़ेंगी और असंख्य जीवों की हिंसा होगी। इस प्रकार तनिक-सी असावधानी महान् हिंसा की परम्परा को जन्म देती है। इस तरह जैन-धर्म दृष्टिपरिवर्तन की सिफारिश करता है। फिर चाहे कोई साधु हो या गृहस्थ, वह चाहे धर्मस्थान में हो या अपने घर में, दृष्टि के बदलते ही सृष्टि भी बदल जाती है । काम करते हुए भी यदि धर्म-बुद्धि रखी जाती है तो निश्चित ही वह मोक्ष के मार्ग पर बढ़ाने वाली होती है । इस प्रकार जहाँ कहीं भी विवेकमय जीवन होगा, वहाँ प्रत्येक क्षण निर्जरा की जा सकती है। जब किसी को बोलना आवश्यक हो तो बोलना चाहिए । जीभ पर ताला लगाए फिरने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु बोलने के साथ संयम सदैव अपेक्षित है । बोलते समय यह ध्यान रहना चाहिए कि उसके बोलने से किसी को चोट तो नहीं पहुँच रही है ? किसी का अनिष्ट तो नहीं हो रहा है ? किसी की कुछ भलाई भी हो रही है या नहीं ? यदि इस प्रकार ‘भाषा-समिति' का ख्याल रख कर बोला जा रहा है तो समझा जा सकता है कि निर्जरा हो रही है। ___ यदि चलने की जरूरत आ पड़ी है तो आदमी चल सकता है । जैनधर्म उसके पैरों को बेड़ियों से नहीं जकड़ता। वह सबके लिए पादपोपगमन संथारे का विधान नहीं करता। वह तो यही कहता है चलते समय देख कर चलना चाहिए । वस्तुतः है जीवन के अन्तिम काल में समाधिमरण के लिए वृक्ष से टूट कर नीचे गिरी हुई शाखा के समान निष्क्रियरूप से एक स्थिति में रह कर आमरण-अनशन करना, पादपोपगमन संथारा कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy