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अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-२ मकान छोड़ कर अन्यत्र चले जाएँ या चलने-फिरने और घूमने में जो हिंसा हो, उसके भागी बनने को तैयार रहें।
इस दृष्टिकोण का अर्थ यह है कि हमें केवल वर्तमान की ही हिंसा-अहिंसा को नहीं देखना चाहिए, अपितु भविष्य की हिंसा-अहिंसा का भी व्यापक दृष्टि से विचार करना चाहिए । बहुधा हमारी निगाह वर्तमान से ही चिपट कर रह जाती है और हम यह सोच लेते हैं कि यदि अभी प्रमार्जन करेंगे तो हिंसा होगी ! किन्तु यदि आप प्रमार्जन नहीं करेंगे और मकान को यों ही गंदा रहने देंगे तो दिनो-दिन गंदगी बढ़ती ही जायगी । उस गन्दगी से असंख्य जीव उत्पन्न हो जायेंगे और सम्पूर्ण मकान जीवों से कुलबुलाता दिखलाई देगा। फिर इसका क्या परिणाम होगा ? जब आप चलेंगे, फिरेंगे तो आपकी इस प्रवृत्ति से कितने जीव मारे जाएँगे ? तो अब आप विचार करें कि प्रतिलेखन और प्रमार्जन केवल वर्तमान की ही हिंसा को नहीं रोकता है, अपितु भविष्य की हिंसा से भी बचाता है। भविष्य में जो भी हिंसा जिस रूप में होने वाली है, उसे सर्वप्रथम रोकना और जीवों की उत्पत्ति न होने देना, एकमात्र विवेक का तकाजा है। इसीलिए तो जैन-धर्म कहता है कि पहले विवेक रखो, स्वच्छता एवं सफाई रखो, और जीवों की उत्पत्ति न होने दो, तभी ठीक तरह हिंसा से बचाव हो सकता है। परन्तु खेद है कि आज का जैन-समाज केवल 'आज' होने वाली हिंसा का ही खयाल करता है और उससे बचना भी चाहता है, किन्तु वर्तमान के फलस्वरूप भविष्य में होने वाली महान् हिंसा के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं करना चाहता ! बस, यही गड़बड़ी का मुख्य कारण है । यही मूल में भूल है।
प्रायः कुछ लोग कहा करते हैं-प्रतिलेखन करेंगे तो हिंसा होगी और प्रमार्जन करेंगे तो पाप होगा । हम उनसे पूछते हैं-हिंसा और पाप क्यों होंगे ?' तब वे कहते हैं-'जब पाप होता है, तभी तो आलोचना-स्वरूप ध्यान करते हैं ! यदि पाप न होता, तो प्रतिलेखन करने के पश्चात् 'इरियावहिया' के रूप में आलोचना की क्या आवश्यकता थी ?'
जो ऐसा कहते हैं, वास्तव में उन्होंने जैन-धर्म के हृदय को स्पर्श नहीं किया; तभी वे भ्रम में पड़ गये हैं । अब मैं पूछता हूँ कि आलोचना प्रतिलेखन की है या दुष्प्रतिलेखन की ? वस्तुतः सिद्धान्त तो यह है कि इस सम्बन्ध में जो आलोचना की जाती है, वह प्रतिलेखन या प्रमार्जन की नहीं हैं; अपितु प्रतिलेखन या प्रमार्जन करते समय जो अयतना हुई हो, उसकी ही आलोचना है। प्रमार्जन तो किया हो, किन्तु उसे सावधानी के साथ नहीं किया हो। इसी प्रकार प्रतिलेखन किया हो, किन्तु वह भी ठीक तरह से नहीं किया हो; अर्थात्-इन क्रियाओं के करने में जो अशुभांश आ गया है, उसी की आलोचना की जाती है। यदि ऐसा न माना जाए तो क्या शास्त्रस्वाध्याय करने से भी पाप लगता है ? नहीं, ऐसा तो नहीं है। वह आलोचना स्वाध्याय की आलोचना नहीं है, किन्तु स्वाध्याय करने में यदि कोई असावधानी हुई हो, अशुद्ध उच्चारण किया गया हो, या कोई त्रुटि रह गई हो, तो उसकी ही आलोचना
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