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________________ अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-१ ११७ संघर्षों में पारस्परिक द्वन्द्वों एवं उलझनों में पड़े हुए व्यक्तियों को वे समय पर मार्गदर्शन करते हैं, उन्हें प्रबुद्ध करते हैं, उनकी समस्याओं को सुलझाते हैं और यथोचित पावन प्रेरणाएँ देते हैं। __ आपने सुना ही होगा, राजगृहनिवासी महाशतक श्रावक अन्तिम धर्मसाधना में संलग्न थे। उस समय उनकी पत्नी जोकि आचार से हीन एवं पतित थी, महाशतक के साथ दुर्व्यवहार करने पर उतारू हो गई । महाशतक ने क्रुद्ध हो कर उसे दुर्वचन कहा, जिससे उसके हृदय को गहरी चोट लगी और वह भयाकुल हो उठी। भगवान् महावीर ने गणधर गौतम को बुला कर कहा कि--"गौतम ! महाशतक से जा कर कहो कि वह श्रावक है, अन्तिम धर्मसाधना की स्थिति में है। उसे इस प्रकार दुर्वचन नहीं कहने चाहिए, जिससे किसी के हृदय को चोट लगे। इसकी शुद्धि के लिए वह आलोचना करे और यथोचित्त प्रायश्चित्त ग्रहण करे।"४ । इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में भी जब कहीं कटुता पैदा होती है तो महावीर उसे शान्त करने की प्रेरणा देते हैं। विचार कीजिए, प्रभु को ऐसी क्या आवश्यकता थी कि किसी के व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं में हस्तक्षेप करें ? गौतम जैसे अपने प्रमुख शिष्य को समाधान के लिए भेजें । यदि वे नहीं भेजते तो उनको क्या दोष लगता था ? और भेजा तो उन्हें क्या कुछ प्राप्त हो गया ? वे तो कृतकृत्य हो गये थे। इस प्रकार के प्रयत्नों में उनका अपना स्वयं का तो कोई हानि-लाम नहीं था। किन्तु सत्य यह है कि धर्म, समाज एवं संघ की बागडोर वही महापुरुष सँभाल सकता है, जो स्वयं निष्काम और निर्मल हो, साधना के उच्च शिखर पर पहुंच चुका हो । परन्तु जब भी और जहाँ भी कहीं कोई त्रुटि देखे, भूल देखे, किसी को कर्तव्य-पथ से भटकते हुए देखे तो उसे यथावसर योग्य सूचनाएँ देता रहे, अन्धकार के क्षणों में प्रकाश देता रहे और मार्गदर्शन करता रहे । विग्रह और व्यामोह का शमन भगवान महावीर के हृदय में विराट् मानवीय चेतना की धारा सहस्ररूपों में प्रवाहित थी। संसार के छोटे-बड़े सभी प्राणियों के प्रति उनके मन में एक समान सहृदयता और करुणा भरी थी। जब राष्ट्र एवं समाज में कहीं भी, किसी पर भी विग्रह एवं द्वन्द्व के बादल मंडराते, तो उनका करुण-मानस उसे शान्त करने के लिए सक्रिय हो उठता था । अवन्ती के सम्राट् चण्ड-प्रद्योत ने कौशाम्बी पर घेरा डाल रखा था, सम्राट् शतानीक की मृत्यु होने पर उनकी पत्नी. महारानी मृगावती को वह अपने अधिकार में ले लेना चाहता था, वह उसके रूप पर पागल हो उठा था और इसी व्यामोह में अन्धा हो कर उसने कौशाम्बी पर आक्रमण किया था। इसी प्रसंग में भगवान् महावीर कौशाम्बी में पधारते हैं, समवसरण में ही उनकी धर्मदेशना के फलस्वरूप चण्डप्रद्योत से रानी मृगावती छुटकारा पा लेती है। ४ उपासकदशांगसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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