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________________ ११६ अहिंसा-दर्शन अपने विचारों में भी अनुकम्पन होना और सेवा की प्रबुद्ध लहर उठना, दान का पूर्व रूप है | "जैसा मैं चेतन हूँ, वैसा ही चेतन यह भी है, चेतनता के नाते दोनों में कोई अन्तर नहीं है, इसलिए अखण्ड एवं व्यापक चैतन्य - सम्बन्ध के रूप में हम दोनों सगे बन्धु हैं, और इस प्रकार एक दो ही क्यों, सृष्टि का प्रत्येक चेतन मेरा आत्म-बन्धु है, मेरी बिरादरी का है" - यह उदात्त कल्पना - पवन आपके मानस - मानसरोवर को तरंगित करे और आप सहज स्नेहार्द्र बन्धुभाव से दान करें- - दान अर्थात् संविभाग करें, बँटवारा करें, यह है दान की उच्चतम विधि । दान की व्याख्या करते हुए कहा गया है - " संविभागो दानम्"' - सम वितरण अर्थात् समान बँटवारा दान है । भाई-भाई के बीच जो बँटवारा होता है, एक-दूसरे को प्रेमपूर्वक जो दिया-लिया जाता है, उससे न किसी के मन में अहं जगता है और न दीनता । चूँकि भाई बराबर का एक साझीदार एवं अपने समान ही सम्पत्ति का अधिकारी माना जाता है, फलतः देने वाले को अहंकार का और लेने वाले को दीनता का शिकार होना पड़े, ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं रहता । ठीक इसी प्रकार आप जब किसी को कुछ अर्पण करें तो उसे "समविभागी" अर्थात् बराबर का बन्धु समझ कर जो उसके उपयुक्त हो, और जिस वस्तु की उसे आवश्यकता हो, वह प्रसन्नता के साथ अर्पण करें । बराबरी की भावना से जो दिया जाता है, उससे देने वाले के मन में लेने वाले को तुच्छ मानने की भावना नहीं उठती और न लेने वाले के मन में अपने प्रति दीनता का संकल्प ही जगता है । दान निवृत्तिरूप भी है, और प्रवृत्तिरूप भी । वस्तु पर से अपने ममत्व का त्याग कर देना, निवृत्ति है । और जो प्रेमपूर्वक अर्पण किया जाता है, वह प्रवृत्ति है । इस प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों का ही समन्वय दान में हो जाता है । लोभ की निवृत्ति हुए बिना दान का संकल्प नहीं जगता, इसलिए वह निवृत्ति रूप है । और उसमें जो दूसरे के सुख की भावना जागृत हुई है, करुणा और प्रेम की जो धारा उमड़ी है, वह प्रवृत्तिरूप है । उसमें सामाजिक चेतना का पवित्र स्रोत बहता दिखाई देता है । समर्पण का उच्चतम आदर्श भगवान् महावीर के उक्त चिन्तन में सामाजिक भावना के उच्चतम आदर्श के दर्शन होते हैं । व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में ही नहीं, किन्तु समष्टिरूप में भी देखा गया है । समाज के हृदय के साथ व्यक्ति का हृदय जुड़ा है, उसके संकल्पों के साथ उसके संकल्प बँधे हैं, और उसके सुख-दुःख के साथ उसके सुख-दुःख भी एकाकार होते प्रतीत होते हैं । भगवान् महावीर का जीवन जैनधर्म की उदात्त परम्परा का महान् प्रतीक है । उनके जीवन के अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जिनमें उनकी सामाजिक और सार्वजनीन जनचेतना के दर्शन किए जा सकते हैं । समाज, परिवार और व्यक्तिगत जीवन के कटु ३ भगवतीसूत्र १५ वाँ शतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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