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________________ ( ११ ) सर्वांगसुन्दर सार्वभौम दर्शन करने के लिए यह ग्रन्थ अपने आप में अद्वितीय है। किसी भी अन्य ग्रन्थ में इतना सुन्दर, स्पष्ट और युक्तिसंगत विवेचन मिलना कठिन है । यों तो 'अहिंसा' इतना व्यापक और विवादास्पद विषय है कि इसके विवेचन में हजारों पृष्ठ लिखे जाएँ तो भी पर्याप्त न होंगे । परन्तु खास-खास मुद्दों को ले कर उपाध्यायश्रीजी महाराज ने जो व्याख्या की है, वह भी अहिंसा के साधकों, उपासकों, विचारकों, प्रयोगकारों और शोधकर्ताओं के लिए अनूठी और अद्वितीय है। इसमें जैन-धर्म के इस युग के आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से ले कर भगवान् महावीर तक के जमाने में हुए अहिंसा-विषयक प्रयोगों पर सुन्दर विश्लेषण किया गया है। साथ ही वर्तमानयुग के गोरक्षा, बंगलादेश के रूप में शरणागत-रक्षा तथा धर्मयुद्ध का आदर्श, सापराधी को दण्ड, आदि ज्वलन्त प्रश्नों पर भी प्राचीनयुग के ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक उदाहरण दे कर जैनधर्म का अहिंसा-सम्बन्धी दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया है । इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक क्षेत्र के भाषा, संततिनियमन, अतिथि सत्कार, जातिवाद आदि प्रश्नों पर भी अहिंसा का स्पष्ट युक्तिसंगत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। सामाजिक क्षेत्र में जाति, वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय, परिवार, राष्ट्र एवं प्रान्त आदि के नाम पर होने वाले संघर्ष, घृणा, द्वेष, विवाद और सिरफुटौव्वल के रूप में खतरनाक हिंसा का विश्लेषण करके उपाध्यायश्रीजी महाराज ने उसका अहिंसात्मक उपाय एवं निवारणपक्ष भी प्रस्तुत किया है और अहिंसा के उस परिपुष्ट आध्यात्मिक आधार पर भी आपने सुन्दर विश्लेषण किया है, जो सर्वधर्म एवं सर्वदर्शन के हृदयों को स्पर्श करने वाला है। एक प्रवचन में आपने समस्त प्रचलित धर्मों के अहिंसाविषयक विचार प्रस्तुत किए हैं। सुदूर अतीत से, अर्थात् उस अज्ञात प्राचीनकाल से ले कर आज तक जो हिंसाअहिंसा की मीमांसा की जाती रही है, उत्तरोत्तर जो उसका स्वरूप विराट और विशाल होता गया है, आचार-जगत की अहिंसा जो भगवान महावीर के युग में शान के साथ विचारजगत् में भी प्रवेश करती जान पड़ती है और गाँधीयुग में राजनैतिक क्षेत्र में आ कर वरदान देती प्रतीत होती है, इन सबका अहिंसा-दर्शन में सांगोपांग युक्तियुक्त एवं आगम-प्रमाणसहित विश्लेषण है ।। राष्ट्रसंत उपाध्याय कविरत्न श्रीअमरचन्दजी महाराज बहुश्रुत, मूर्धन्य विद्वान, दार्शनिक एवं निष्पक्ष तत्त्वचिन्तक मुनिपुगव हैं । सौभाग्य से आपको विद्या और बुद्धि के साथ उच्चकोटि की वक्तृत्वकला भी प्राप्त है । आपकी भाषा में ओज, अर्थगम्भीर्य एवं लालित्य है। आपकी प्रवचनशैली नदी के प्रवाह की तरह प्रतिपाद्य विषय की ओर अग्रसर होती हुई लहराती हुई धरातल से ऊपर उठ कर आध्यात्मिक गगनतल को छूती हुई-सी जान पड़ती है, वह न तो बीच में कहीं रुकती है, और न स्खलित ही होती है। यद्यपि प्रवचनों का सम्पादन करते समय आपकी भाषा की मौलिकता को अक्षुण्ण रखने का भरसक प्रयास किया गया है, फिर भी यह दावा करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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