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परिशिष्ट बनो समर्थ अजेय अहिंसक
दृढ़ अध्यात्म - सबलता से ॥ (६०) क्रोध विचारों का नाशक है,
सम्यक् ज्ञान नहीं रहता। क्या होगा फल आगे इसका,
कुछ भी भाव नहीं रहता॥ (६१) आँख दोनों खोलकर,
कुछ देखले, कुछ सीखले । शिष्य बन, कुछ दिन प्रकृति का
स्वच्छ जीवन पाएगा ॥ (६२) प्राप्त कर सद्गुण, न बन,
पागल प्रतिष्ठा के लिए । जब खिलेगा फूल, खुद
अलि वृन्द आ मँडराएगा ॥ (६३) फूल - फल से युक्त होकर,
वृक्ष झुक जाते स्वयं । पाके गौरव मान कब तू, नम्रता
दिखलाएगा ? (६४) रात - दिन अविराम गति से,
देख झरना बह रहा । या तू अपने लक्ष्य के प्रति,
यों उछलता जाएगा ? (६५) दूसरों के हित 'अमर' जल
संग्रही सरवर बना। दीन के हित धन लुटाना,
क्या कभी मन भाएगा ? (६६)
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