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________________ 3 धर्म-वीर सुदर्शन वह धन दानी वीर पलक में, रज-कण तुल्य लुटा देते ॥ (२३) वे कायर क्या देंगे जो मरते हों कौड़ी-कौड़ी पर । खाते - देते देख अन्य को, जो कंपते हों थर थर थर ॥ (२४) वीर पुरुष अपवाणी सुनकर क्रोध नहीं मन में लाते । अविचल शांत प्रशांत सिंधु-से, नहीं क्षुब्धता दिखलाते ॥ (२५) शत-शत विद्युत पड़े सिंधु में, क्या प्रभाव दिखलाएँगी। अतल जलधि में सदा काल के लिए शान्त सो जाएँगी॥ (२६) जीवन में सुख दुःखादिक का, __चक्र निरंतर फिरता है । मानव-पद के गुण-गौरव का ___ सफल परीक्षण करता है ॥ (२७) वीर पुरुष की संकट में भी, धर्म - भावना बढ़ती है। उलटी करने पर भी अग्नि ज्वाला ऊपर चढ़ती है। (२८) दुःख दुःख है, जब आता है, सहन किया ही जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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