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________________ धर्म - वीर सुदर्शन दर्श मात्र से वैर जगा, कर पूर्व - स्मरण अति ही मचली ॥ "अरे वही है, यह तो पापी, सेठ सुदर्शन मैंने सब कुछ कहा करा, पर एक नहीं रानी थी मैं तो, मेरे को, इसी धूर्त ने भय - विह्वल कर आत्म - हनन का Jain Education International किया । अति ही भीषण कष्ट दिया || अभिमानी । इसने मानी ॥ आदिकाल का धर्म - धूर्त, फिर आज साधु बन बैठा है । धर्म - मूढ़ लोगों को ठगने, मायार्णव में पैठा है ॥ वन में मादक सरस सुगन्धित, ऋतु बसंत त्याग और वैराग्य उड़ाने, का सब साज माया - बल से अनुपमेय अति, सुन्दर रूप गगनांगण से उतर विमोहक, हाव भाव पूर्व जन्म की आज वासना, पूर्ण करूँगी देवी हूँ, अति दिव्य शक्ति है, क्यों न बनेगा मम - नष्ट १५३ जी भर कर । - किंकर ॥" लहराया सजाया For Private & Personal Use Only 1 है ॥ बनाया है । दर्शाया है ॥ www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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