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पूर्णता के पथ पर वेश्या ने जाकर मुनिवर को,
भक्ति - भाव से प्रणति करी । "मुझ घर भी भिक्षार्थ पधारें,"
साग्रह यों विज्ञप्ति करी ॥
सरल चित्त मुनिराज, पता क्या,
उन्हें, तुरंत पधार गए । वेश्या ने समझा, अब क्या है,
सभी मनोरथ पूर्ण हुए ॥
तीन दिवस तक मुनिवर जी को,
रुद्ध किया, घर में रक्खा । काम-वासना के निज कुत्सित,
जाल फँसाने में रक्खा ॥"
आखिर
जो करना था किया, किन्तु,
आखिर में हरिणी स्वयं थकी । अटल मेरु-सा हृदय व्रती का,
तिलतुष - मात्र न डिगा सकी ।
पूर्णरूप से हुई प्रभावित,
हाथ जोड़ कर नमन किया । "क्षमा करें अपराध, आपको,
मैंने जो यह कष्ट दिया ॥"
शान्ति मूर्ति ने क्षमादान कर,
दिया एक धार्मिक प्रवचन । जाग उठा सोते से रंभा,
वेश्या का द्रुत अन्तर मन ॥ .
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