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________________ - पूर्णता के पथ पर वेश्या ने जाकर मुनिवर को, भक्ति - भाव से प्रणति करी । "मुझ घर भी भिक्षार्थ पधारें," साग्रह यों विज्ञप्ति करी ॥ सरल चित्त मुनिराज, पता क्या, उन्हें, तुरंत पधार गए । वेश्या ने समझा, अब क्या है, सभी मनोरथ पूर्ण हुए ॥ तीन दिवस तक मुनिवर जी को, रुद्ध किया, घर में रक्खा । काम-वासना के निज कुत्सित, जाल फँसाने में रक्खा ॥" आखिर जो करना था किया, किन्तु, आखिर में हरिणी स्वयं थकी । अटल मेरु-सा हृदय व्रती का, तिलतुष - मात्र न डिगा सकी । पूर्णरूप से हुई प्रभावित, हाथ जोड़ कर नमन किया । "क्षमा करें अपराध, आपको, मैंने जो यह कष्ट दिया ॥" शान्ति मूर्ति ने क्षमादान कर, दिया एक धार्मिक प्रवचन । जाग उठा सोते से रंभा, वेश्या का द्रुत अन्तर मन ॥ . १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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