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धर्म-वीर सुदर्शन सन्नाटा-सा बीत गया,
बह चली नेत्र से जल-धारा ॥ आँखें पथरा गईं और,
मस्तक ने चक्कर खाया है। मक्कारी बदकारी का सब,
दृश्य सामने आया है ॥ "हाय ! हाय !! भगवान् ! पड़ा,
यह क्या इकदम उलटा पाँसा । सेठ साफ बच गया हुआ,
मम जीवन का ही साँसा ॥ क्या मुझको ही अपने खोदे,
ड्वे में पड़ना होगा ? हाँ, अवश्य ही दुष्फल अपनी,
करनी का भरना होगा । कपिला की संगति में पड़कर,
जीवन भ्रष्ट बनाया, हा ! रानी बन कर भी अपयश का,
काला दाग लगाया, __हा !! क्या जाने, अब किस कुमौत से,
राजा मुझको मरवाए ? शूली दे अथवा नंगी कर,
के कुत्तों से नुचवाए ?" कहते-कहते अभया रानी,
पड़ी फर्श पर गश खाकर । फूटा सिर, बह चला रक्त्त,
तन लगा तड़फने इधर-उधर ॥
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