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________________ - - धर्म-वीर सुदर्शन सन्नाटा-सा बीत गया, बह चली नेत्र से जल-धारा ॥ आँखें पथरा गईं और, मस्तक ने चक्कर खाया है। मक्कारी बदकारी का सब, दृश्य सामने आया है ॥ "हाय ! हाय !! भगवान् ! पड़ा, यह क्या इकदम उलटा पाँसा । सेठ साफ बच गया हुआ, मम जीवन का ही साँसा ॥ क्या मुझको ही अपने खोदे, ड्वे में पड़ना होगा ? हाँ, अवश्य ही दुष्फल अपनी, करनी का भरना होगा । कपिला की संगति में पड़कर, जीवन भ्रष्ट बनाया, हा ! रानी बन कर भी अपयश का, काला दाग लगाया, __हा !! क्या जाने, अब किस कुमौत से, राजा मुझको मरवाए ? शूली दे अथवा नंगी कर, के कुत्तों से नुचवाए ?" कहते-कहते अभया रानी, पड़ी फर्श पर गश खाकर । फूटा सिर, बह चला रक्त्त, तन लगा तड़फने इधर-उधर ॥ १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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