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धर्म-वीर सुदर्शन
बतलाया । परन्तु ये सब कुछ सुन कर भी अर्जुन के मन का समाधान नहीं होने पाया और वह बोला- “भगवन् ! मैं कुछ नहीं समझ पाया हूँ । ज्ञानवाद, कर्मवाद और भक्तिवाद की यह गहन गम्भीर चर्चाएँ मेरे मन और मस्तिष्क में नहीं पैठ सकी हैं । आपने अपने दार्शनिक प्रवचन में जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष की व्याख्या की है और जिसके स्वरूप का आपने प्रतिपादन किया है, उसका साकार रूप ही आप मुझे बतलाइए । वह कैसी भाषा बोलता है ? उसका आचरण कैसा होता है ? और उसका व्यवहार कैसा होता है ? अर्जुन के इस प्रकार पूछने पर भगवान श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा, उसका अन्तर्मर्म यह है कि - "तू मुझे ही देख और समझ । मेरे जीवन को देखकर तू उस स्थित प्रज्ञ का विचार कर, जिसका स्वरूप मैंने तुझे बतलाया है । "
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भारतीय साहित्य का परिशीलन करने पर परिज्ञात होता है, कि आज से नहीं, बहुत प्राचीन काल से ही मानव को धर्म का रहस्य समझाने के लिए किसी न किसी चरित्र का कथानक का और आख्यान का आधार लिया गया हैं । जैन आगमों में, बौद्ध पिटकों में और वैदिक परम्परा के उपनिषदों में इस प्रकार के हमें अनेक निदर्शन मिल जाते हैं, जहाँ पर किसी व्यक्ति के जीवन की कहानी को कहकर फिर धर्म - रहस्य समझाने का प्रयत्न किया है । इसके सबसे अच्छे उदाहरण योग- वाशिष्ठ, रामायण, महाभारत और पुराण हैं कम से कम समझ का व्यक्ति भी इनको पढ़कर और सुनकर आसानी से धर्म के रहस्य को समझ सकता है ।
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जैन - परम्परा के साहित्यकारों ने प्रारम्भ से ही इस ओर ध्यान दिया है । यही कारण है कि जैन - परम्परा का कथा - साहित्य अत्यन्त समृद्ध और विपुल मात्रा में रचा गया है । जैन - कथाकारों ने अपने - अपने युग की भाषा और संस्कृति को भी अपने कथा - ग्रन्थों में अपनाया है । यही कारण है, कि जैन - कथा - साहित्य, भारत की विभिन्न भाषाओं में आज भी उपलब्ध होता है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी और दक्षिण भारत की कन्नड़, तेलगु एवं मलयालम आदि अनेक भाषाओं में जैन परम्परा का कथा - साहित्य बिखरा पड़ा है । जैन कथा - साहित्य के स्रष्टा साहित्यकारों ने अपने-अपने युग की भाषा का सदा आदर किया है । उन्होंने अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम सदा से जन- बोली को ही बनाया है । आज से दो-तीन शताब्दी पूर्व जैन - कथाएँ अपभ्रंश में लिखी जाती थीं अथवा उस हिन्दी में लिखी जाती थीं, जिसे कबीर की सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है । परन्तु जैसे-जैसे हिन्दी भाषा का विकास होता गया, जैन परम्परा के साहित्यकारों ने उसे अपनाया और उसी में अपनी कलम का चमत्कार दिखलाया । मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि जैन विद्वानों को कभी किसी भाषा का व्यामोह नहीं रहा । वे जिस किसी भी प्रान्त में चले गये, उन्होंने उसी प्रान्त की भाषा को अपना लिया और उसी में अपनी रचना करने लगे । भाषावाद और प्रान्तवाद को कभी भी जैन लेखकों ने प्रोत्साहित नहीं किया । आज के युग के बड़े-बड़े जैन विद्वान हिन्दी में ही अपनी रचना को प्रस्तुत करने में अपना गौरव समझते हैं ।
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