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कायोत्सर्ग का फल
यह नियम है कि जो वस्तु जिस वस्तु से श्रेष्ठ होती है उस श्रेष्ठ वस्तु के गुणों में विशेषता होती है। जैसे धर्म-ध्यान से शुक्ल ध्यान श्रेष्ठ है, अतः धर्मध्यान के जो फल हैं वे ही फल शुक्ल ध्यान में विशेष रूप में पाये जाते हैं तथा अन्य विशेष गुण भी पाये जाते हैं। इसी प्रकार ध्यान-तप से कायोत्सर्ग तप श्रेष्ठ व उत्कृष्ट तप है, अतः जो ध्यान-तप की उपलब्धियाँ हैं वे कायोत्सर्ग तप में विशेष व उत्कृष्ट रूप में पायी जाती है, अतः कायोत्सर्ग तप की उपलब्धियाँ (फल) बताने के लिए यहाँ ध्यान-तप की उपलब्धियाँ (फल) देवर्द्धि क्षमाश्रमण रचित ध्यान-शतक ग्रन्थ से प्रस्तुत की जा रही हैं यथा
होंति सुहासव- संवर विणिज्जराऽमर सुहाई विउलाई। झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ।।93 ।।
(धवला पुस्तक 13, गाथा 6) ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च। दोहं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ।।94॥ आसवदारा संसारहेयवो जं ण धम्म-सुक्केसु । संसारकारणाइ तओ धुवं धम्मसुक्काइं॥95।। संवर-विणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवो तासिं। झाणं च पहाणगं तवस्स तो मोक्खहेउयं ।।१।।
अर्थात्-उत्तम धर्म-ध्यान से शुभास्रव (पुण्य कर्मों का आगमन), संवर (पापासव व पापकर्मों का निरोध), निर्जरा (संचित कर्मों का क्षय) तथा अमर (देव)-सुख एवं शुभानुबन्धी (पुण्यानुबन्धी) विपुल फल होते हैं ।।93 ।।
विशेष रूप से धर्म-ध्यान के फल शुभासव आदि अणुतर और अमरसुख प्रारम्भ के दो शुक्ल ध्यान का भी फल है। अन्तिम दो शुक्ल ध्यान का फल मोक्ष की प्राप्ति है ।।94।।
जो मिथ्यात्व आदि आस्रवद्वार संसार के कारण हैं, वे चूँकि धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान में सम्भव नहीं है। इसलिये यह ध्रुव नियम है कि ये ध्यान नियमतः संसार के कारण नहीं हैं, किन्तु संवर और निर्जरा के हेतु होने से मोक्ष 96 कायोत्सर्ग
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