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________________ ध्यान-ध्यान तप में धर्म-ध्यान तथा शुक्ल ध्यान को ही स्थान है। वस्तु (पदार्थ) का स्वभाव ही धर्म है। अतः स्वाध्याय तप से, स्वभाव में विचरण या रमण करने से सत्य का साक्षात्कार होना व तत्त्व का बोध होना धर्म-ध्यान है। वीतरागता का अनुभव होना शुक्ल ध्यान का फल है। व्युत्सर्ग-ध्यान के प्रभाव से शरीर, संसार, कषाय और कर्मबंध का विसर्जन होना, असंग होना, विमुक्त होना व्युत्सर्ग है। इसका विशेष वर्णन इसी ग्रन्थ में पहले कह आए हैं, अतः पुनरावृत्ति से बचने के लिए यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। प्रश्न : कषाय प्रतिसंलीनता और व्युत्सर्ग में क्या अन्तर है? समाधान : प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है : इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता और विविक्तशयनासन प्रतिसंलीनता। इसी प्रकार व्युत्सर्ग भी चार प्रकार का है :- शरीर व्युत्सर्ग, कषाय-व्युत्सर्ग, संसार व्युत्सर्ग और कर्म-व्युत्सर्ग। इनके अन्तर को तत्त्वार्थ सूत्र के दो सूत्रों से समझें : 'आस्रव निरोध संवरः' और 'तपसा निर्जराच' (तत्त्वार्थ सूत्र अ. 9, सूत्र 1 व 3)। इनमें 'तपसा निर्जराच' का अर्थ है तप से संवर और निर्जरा, दोनों होते हैं और संवर है आस्रव का निरोध होना । तप के दो भेद हैं1. बाह्य तप और 2. आभ्यंतर तप। बाह्य तप के ये सब भेद आस्रव का, नवीन कर्म-बंध के हेतुओं का निरोध करने वाले हैं अर्थात् शरीर और इन्द्रियाँ भोगों की ओर बाहर प्रवृत्ति कर रही हैं तथा राग-द्वेष की वृत्ति में तल्लीन हो रही हैं जिससे कर्मों का नया बंध हो रहा है, नये संस्कार का निर्माण हो रहा है। उस कर्म-बंध के सृजन को रोकने के लिए भोगों की ओर उन्मुख प्रवृत्तियों व वृत्तियों का निरोध करना है, इनका संवरण करना प्रतिसंलीनता है। प्रतिसंलीनता में संवर की पूर्णता है। अतः बाह्य तप मुख्यतः संवर का कार्य करते हैं। साथ ही पूर्वबद्ध सत्ता में स्थित पापों, कर्मों के स्थितिबंध का अपवर्तन एवं अनुभाग बंध का अपकर्षण भी करते हैं अर्थात् सत्ता में स्थित कर्मों के स्थितिबंध और अनुभाग बंध में भी कमी करते हैं, घटाते हैं। कर्मों की स्थिति और अनुभाग का कम होना-घटना भी कर्मों की निर्जरा है। अतः संवर से पापकर्मों का नवीन बंध रुकता है और पूर्वबद्ध कर्मों की आंशिक निर्जरा होती है, परन्तु कर्मों का उन्मूलन व क्षय नहीं होता है। तप में कायोत्सर्ग का महत्त्व 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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