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अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग एवं अनन्त वीर्य की उपलब्धि व अनुभूति हो जाती है ।
ध्यान-साधना से जैसे-जैसे राग-द्वेष-मोह घटते जाते हैं, समताभाव बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे अनुभव के क्षेत्र में स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर प्रगति होती जाती है तथा आंतरिक शक्तियाँ व अनुभूतियाँ विशेष रूप से प्रकट होती जाती हैं। आंतरिक शक्ति के बढ़ने से उसका पुरुषार्थ - वीर्य बढ़ता है जो उत्साह के रूप में प्रकट होता है और उद्देश्य या लक्ष्य की सिद्धि या सफलता प्राप्ति में सहायक होता है ।
आंतरिक शक्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे अधिक से अधिक सूक्ष्म संवेदनाओं की अनुभूति बढ़ती जाती है जो समत्व व प्रीति व प्रमोद के रूप में व्यक्त होती है ।
ध्यान-साधना से विरतिभाव बढ़ता है जो कामनाओं, वासनाओं, कृत्रिम आवश्यकताओं को घटाता है । इनकी उत्पत्ति न होने से साधक को कामना की पूर्ति - अपूर्ति से उत्पन्न होने वाला दुःख नहीं भोगना पड़ता। संतुष्टि व तृप्तिभाव की अभिवृद्धि होती है तथा उसकी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः हो जाती है । यह प्राकृतिक नियम है कि जो प्राप्त का सदुपयोग करता है उसे उससे अधिक हितकर वस्तुओं की प्राप्ति अपने-आप होती है । अभाव का दुःख उसे पीड़ित नहीं करता । उसका चित्त सदा समृद्धि से भरा होता है ।
ध्यान-साधना से जैसे-जैसे राग पतला पड़ता जाता है वैसे-वैसे स्वार्थपरता, संकीर्णता घटती जाती है; सेवाभाव, करुणाभाव, परोपकार और दान की भावना बढ़ती जाती है।
जैसे-जैसे विषय - सुखों के भोग-उपभोग की दासता, राग-द्वेष-मोह क्षीण होता जाता है वैसे-वैसे भोगान्तराय - उपभोगान्तराय आदि अंतराय कर्म क्षीण होते जाते हैं और आंतरिक व आत्मिक सद्गुणों की व निज-स्वरूप के भोग-उपभोग के सुख की अधिकाधिक अभिवृद्धि होती जाती है। पूर्ण वीतराग अवस्था में ये गुण असीम व अनन्त हो जाते हैं।
इस प्रकार ध्यान-साधना से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अंतराय कर्म क्षीण होते हैं । इन चारों का परस्पर इतना घनिष्ठ संबंध है कि इनमें किसी एक कर्म के क्षीण होने का प्रभाव शेष तीन कर्मों पर भी पड़ता है और उनमें भी क्षीणता आती है ।
82 कायोत्सर्ग
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