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________________ . अनुभव करे। देह से अपने को भिन्न अनुभव करना ही कायोत्सर्ग है। प्राणी शरीर से सुख चाहता है एवं इन्द्रियों व संसार को सुख का माध्यम मानता है। सुख की प्रतीति में राग करता है और सुख में बाधा उत्पन्न होने पर दुःख की प्रतीति होती है। दुःख की प्रतीति में द्वेष उत्पन्न होता है। ये राग-द्वेष, कषाय ही समस्त दोषों की उत्पत्ति के जनक हैं। दोषों की उत्पत्ति के परिणामस्वरूप समस्त दुःख उत्पन्न होते हैं। कोई ऐसा दुःख है ही नहीं जिसकी उत्पत्ति का कारण कोई दोष नहीं हो। अतः कायोत्सर्ग में अपने शरीर से अतीत निज-स्वरूप में स्थित होते ही इन्द्रियों एवं संसार से असंगता हो जाती है। जिसके होते ही राग-द्वेष, विषय-कषाय का क्षय हो जाता है। विषय-कषाय के क्षय होते ही समस्त दोषों से मुक्ति हो जाती है। निर्दोषता की अनुभूति हो जाती है जिससे परमतत्त्व (परमात्मा) से अभिन्नता हो जाती है। शिवत्व की अनुभूति हो जाती है और दुःखों से सदा के लिए मुक्ति हो जाती है। आत्मारहित देह शव है। देह के सम्बन्ध से रहित आत्मा शिव है। शव (देह) से असंग होते ही स्वतः शिव का संग हो जाता है। यह ही सिद्धत्व है, मुक्ति है। जैन धर्म में मानव-भव की सार्थकता व सफलता 'मोक्ष प्राप्त करना' कहा है। मोक्ष का अर्थ है-दुःखों व दोषों से सर्वथा मुक्त होना । मोक्ष का मार्ग बताया है-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को, यथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः । सम्यक् दर्शन के अभाव में सम्यक् ज्ञान-चारित्र नहीं होता है। सम्यक् दर्शन का आधार भेद-विज्ञान है, भेद-विज्ञान का अर्थ है-अपने आत्म-स्वरूप को शरीर, संसार आदि से भिन्न समझना और देह से आत्म-स्वरूप के भिन्नत्व का अनुभव करना। देह से आत्म-स्वरूप के भिन्नत्व का अनुभव होना ही कायोत्सर्ग है। इसीलिए जैन धर्म की साधना-पद्धति में कायोत्सर्ग को साधना का चरमोत्कर्ष कहा है। जैन धर्म में सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र नहीं माना है। जिस ज्ञान व चारित्र का लक्ष्य भेद-विज्ञान अर्थात् देह और आत्मा को भिन्न अनुभव करना नहीं है, कायोत्सर्ग नहीं है। वह ध्यान ज्ञान व चारित्रसाधना के अन्तर्गत नहीं आता है। जैन धर्म में मुक्ति प्राप्ति के उपाय धर्म के तीन मुख्य अंग कहे हैंधम्मो मंगलमुकिट्ठे अहिंसा संजमो तवो (दशवैकालिक सूत्र, अ.1, सू. 1) अर्थात् धर्म के तीन अंग हैं-अहिंसा, संयम और तप। अहिंसा है किसी जीव को कष्ट नहीं देना, अहितकारी प्रवृत्ति नहीं करना, हितकारी प्रवृत्ति करना। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और शोषण-संग्रह वृत्ति का त्याग करना, करुणा तथा मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना । इनके पालन के बिना संयम नहीं हो सकता। संयम 68 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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