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अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये ।
शिथिलीभवति शरीरं छत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा ॥
अमनस्कता अर्थात् उन्मनीभाव उत्पन्न होने से मन सम्बन्धी शल्य का नाश हो जाता है, अतः तत्त्वज्ञानी का शरीर छाते के समान अकड़ छोड़कर शिथिल हो जाता है ।
शल्यीभूतस्यान्तःकरणस्य क्लेशदायिनः विनान्यद्विशल्यकरणौषधं
अमनस्कतां
शल्य के सदृश क्लेशदायक अन्तःकरण को निशल्य करने का अमनस्कता- उन्मनीभाव के सिवाय और कोई उपाय नहीं है ।
अमनस्कता का फल
कदलीवच्चाविद्या लोलेन्द्रियपत्रला मनः कन्दा । अमनस्कफले दृष्टे नश्यति सर्वप्रकारेण ॥
सततम् । नास्ति ॥
अविद्या कदली के पौधे के समान है । चपल इन्द्रियाँ उसके पत्ते हैं और मन उसका कन्द है । जैसे फल दिखाई देने पर कदली का वृक्ष नष्ट कर दिया जाता है, उसी प्रकार अमनस्कता (उन्मनीभाव) रूपी फल के दिखाई देने पर अविद्या भी पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है। फल आने पर कदली वृक्ष काट डाला जाता है, क्योंकि उसमें पुनः फल नहीं आते ।
अतिचञ्चलमतिसूक्ष्मं दुर्लक्ष्यं वेगवत्तया चेतः । अश्रान्तमप्रमादादमनस्क - शलाकया भिन्द्यात् ॥
मन अत्यन्त चंचल और अत्यन्त ही सूक्ष्म है । वह तीव्र वेगवान होने के कारण उसे पकड़ रखना भी कठिन है, अतः बिना विश्राम लिए, प्रमाद का परित्याग करके, अमनस्कता रूपी शलाका से उसका भेदन करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि चंचल वस्तु का भेदन करना कठिन है, किन्तु चपल होने के साथ जो अत्यन्त सूक्ष्म है, उसका भेदन करना और भी कठिन है । फिर जो चपल और सूक्ष्म होने के साथ अत्यन्त वेगवान हो, उसका भेदना तो और भी कठिन है । मन में ये तीनों विशेषताएँ विद्यमान हैं, अतः उसको जीतना सरल नहीं है, फिर भी असम्भव नहीं है । यदि निरन्तर अप्रमत्त रहकर उन्मनीभाव का अभ्यास किया जाये तो उसे अवश्य जीता जा सकता है ।
अमनस्कता (उन्मनीभाव) की पहचान
विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोड्डीनमिव प्रलीनमिव कायम् । अमनस्कोदय-समये जानात्यसत्कल्पम् ॥
योगी
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कायोत्सर्ग और अमनस्क साधना 49
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