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शब्द का अर्थ विचार व चिन्तन करना उपयुक्त नहीं लगता है, कारण कि चिन्तन या विचारना में चित्त ऊहापोह व विकल्पयुक्त होता है, ज्ञानोपयोगमय होता है, निर्विकल्प व स्वसंवेदन रूप नहीं होता है। अतः यहाँ विचय शब्द का अर्थ विचार करना नहीं होकर विचरण करना, संवेदन व अनुभव करना अधिक उपयुक्त
लगता है। यथा-... ... आज्ञाविचय-आज्ञा अर्थात् सत्य का, श्रुतज्ञान का, अपने अनादि,
अविनाशी स्वभाव का, शरीर से आत्मा की भिन्नता का जैसा स्वरूप प्रकट हो रहा है, वैसा ही अनुभव होना आज्ञाविचय है। यह शरीर व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग है। ____ अपायविचय-राग, द्वेष, मोह आदि त्याज्य अपाय, दोषों को, कषायों को जैसे वे प्रकट हो रहे हैं, उन्हें वैसा ही अनुभव करना, उनका समर्थन व विरोध न करना, असंगतापूर्वक अनुभव करना अपायविचय है। यह कषायव्युत्सर्ग है।
विपाकविचय-अपाय का, दोषों का, कर्मों का विपाक-उदय व फल . जैसा प्रकट हो रहा है उसे उसी रूप में समता व असंगतापूर्वक अनुभव करना विपाकविचय है, यह कर्म-व्युत्सर्ग है।
संस्थानविचय-संसार या लोक के स्वरूप का अर्थात् उत्पत्ति-स्थितिभंग (विनाश) के चक्र रूप प्रवाह का असगंतापूर्वक अनुभव करना संस्थानविचय है, यह संसार व्युत्सर्ग है।
..... । व्युत्सर्ग-अपने में देह की और देह में अपनी स्थापना करने से प्राणी को निज स्वरूप की विस्मृति हो जाती है। देह में अपनी स्थापना करने से मैं देह हूँ रूप अहंभाव (देहाभिमान) उत्पन्न होता है। इसका परिणाम यह होता है कि देह की सत्यता (स्थायित्व) भासित होने लगती है और अपने में देह की स्थापना करने से देह में ममता (आसक्ति) उत्पन्न हो जाती है, जिससे देह सुन्दर तथा सुखद लगने लगती है। इस प्रकार देह से अभेदभाव के सम्बन्ध से अहम् (मान)
और भेदभाव के सम्बन्ध से 'मम' (माया) उत्पन्न होता है। ... . अहम् और मम भाव से कामना की उत्पत्ति होती है जिससे चित्त कुपितक्षोभित (अशान्त) हो जाता है और कामना की पूर्ति में सुख का और अपूर्ति में दुःख का भास होने लगता है। सुख की दासता और दुःख के भय से प्राणी निज अविनाशी (अनन्त) स्वरूप से विमुख हो जाता है अर्थात् विभाव में आबद्ध
और स्वभाव से च्युत हो जाता है। यद्यपि अविनाशी निज स्वरूप सदैव विद्यमान है, उससे देशकाल की दूरी नहीं है, फिर भी प्राणी उसे कठिन मानकर उससे
कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता 39
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