SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिप्राय यह है कि कायोत्सर्ग में मन, वचन और काया की किसी भी प्रकार की हलचल, चंचलता, प्रवृत्ति या क्रिया से रहित होना है। यहाँ तक कि शरीर में स्वतः होने वाली स्वाभाविक क्रियाओं-उच्छवास, निःश्वास, खाँसी, छींक, जम्भाई और डकार का आना, अधोवायु का निकलना, चक्कर आना, अंगों का, कफ का, दृष्टि का स्वतः सूक्ष्म संचालन होना आदि को भी कायोत्सर्ग के पाठ में आगार के रूप में स्वीकार किया है। स्वयं की ओर से शरीर को किसी भी क्रिया करने की, हाथ-पैर हिलाने, आसन बदलने आदि की छूट भी (आगार) नहीं है । तब वचन व मन की क्रिया की छूट केसे हो सकती है? नहीं हो सकती। बौद्ध धर्म में प्रतिपादित 'विपश्यना-अनुपश्यना' ध्यान के प्रतिपादक मुख्य ग्रन्थ 'महासतिपट्टानसुत्त' में वेदनानुपश्यना, चित्त अनुपश्यना, धर्म अनुपश्यना आदि प्रत्येक अनुपश्यना के साथ एक सूत्र दिया गया है। यथा - - "यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय, अनिसित्तो च विहरति न च किञ्चि लोके उपादियति।" (अनुपश्यना में) जब तक मात्र ज्ञान, मात्र दर्शन बना रहता है तब तक अनाश्रित होकर विहार करता है और लोक (शरीर और संसार) में कुछ भी ग्रहण नहीं करता है। भिक्षुओ! इस प्रकार भिक्षु अनुपश्यना में अनुपश्यी होकर विहार करता है। इस प्रकार महासतिपट्टानसुत्त में अनुपश्यी साधक के लिए किसी भी अनुपश्यना में लोक, शरीर और संसार के आश्रय ग्रहण करने तथा क्रिया करने का निषेध है, यहाँ तक कि वेदना, चित्त, धर्म आदि अनुपश्यना में जो स्वतः हो रहा है उसका केवल ज्ञाता-द्रष्टा होता है, क्योंकि कोई भी क्रिया लोक का आश्रय लिए बिना नहीं होती है अर्थात् देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि लौकिक आश्रय लेने से ही होती है और अनुपश्यना (विपश्यना) में लोक का किंचित् भी आश्रय ग्रहण न करने का विधान है। 'महासतिपट्टानसुत्त' में ध्यान-साधक के लिए सिर से पैर तक पूरे शरीर के प्रत्येक अंग-उपांग पर उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं को देखने एवं उनके अनित्य होने का चिन्तन करने का भी विधान नहीं है। वे ध्यान से पूर्व की आत्म-निरीक्षण की अर्थात् स्वाध्याय की क्रियाएँ हैं। कारण कि संवेदनाओं को देखना और उनके अनित्य स्वभाव का चिन्तन मन-बुद्धि की क्रिया से ही सम्भव है, क्योंकि कोई भी क्रिया बिना आश्रय के नहीं होती है। कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग में शरीर, संसार, कषाय और कर्म-इन सबका व्युत्सर्ग आवश्यक है अर्थात् इनसे असंग होना, इनके आश्रय का त्याग करना आवश्यक बताया है। 36 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy