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________________ में विषैले द्रव्य होने से दवाइयाँ स्वास्थ्य को हानि पहुँचाती हैं व अन्य रोगों की उत्पत्ति करती हैं। अतः शिथिलीकरण चिकित्सा पद्धति औषधीय चिकित्सा पद्धतियों से श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति है, यह कहा जा सकता है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण विदेशों में इस चिकित्सा पद्धति के अनेक प्रसिद्ध चिकित्सालय संचालित हैं, किन्तु शारीरिक अथवा कुछ अंशों में मानसिक रोगों के निवारण की इस शिथिलीकरण चिकित्सा पद्धति को कायोत्सर्ग मानना भूल है, धोखा है। कायोत्सर्ग आध्यात्मिक साधना का चरम-परम रूप है। आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है, जन्म-मरण से मुक्त होना है। जन्ममरण से वही मुक्त होता है जो देह से रहित है, देहातीत है। जन्म-मरण देह का ही होता है, आत्मा का नहीं। आत्मा तो न कभी जन्मा है और न कभी मरता है। देह से अतीत-असंग होना, देहातीत (देह से असंग-रहित) होने की साधना ही कायोत्सर्ग है। दुःख से मुक्ति पाने या निर्वाण प्राप्ति के लिए कर्मों का क्षय करना अनिवार्य है। कर्म क्षय के लिए आवश्यक है, नवीन कर्म-बंध का निरोध और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा (क्षय) की जाय। आगमिक भाषा में नवीन कर्मों के निरोध को संवर या संयम कहा जाता है और निर्जरा की प्रक्रिया को तप कहा गया है। संवर और निर्जरा की साधना करने का वह ही अधिकारी व पात्र होता है जो सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि वह ही होता है जो अपनी आत्मा को देह से भिन्न मानता है। इस भेद-विज्ञान के बिना सम्यग्दृष्टि नहीं होता है। जो अपने को देह मानता है अथवा देह को अपना मानता है वह मिथ्यादृष्टि है। अपने को देह मानना अर्थात् “मैं देह हूँ"-ऐसा देहाध्यास रखना, देहाभिमानी होना, देह में अहं तथा जीवनबुद्धि रखना ही संसार से जुड़ना है। कारण कि शरीर और संसार दोनों एक ही पुद्गल जाति के हैं। संसार से जुड़ना ही समस्त वासनाओं, कामनाओं, कषायों, मोह का कारण है। देहाभिमानी को अपनी विषय-भोगों व वासनाओं-जन्य सुख प्राप्ति के लिए संसार की अपेक्षा रहती है। उसका लक्ष्य शरीर के द्वारा संसार से विषय-सुखों का भोग करना है। उसे शरीर और संसार की भोग्य वस्तुओं के न रहने के विचार मात्र से भयंकर भय लगता है। वह शरीर और संसार के विषय-भोगों की सामग्री को सदा सुरक्षित बनाये रखने, संवर्धन करने में संलग्न रहता है। आगम में स्पष्ट कहा है कि भोगों में आबद्ध, अपने को देह मानने वाला व्यक्ति सम्यक् शील, सम्यक् तप व चारित्र का आचरण नहीं कर सकता। जबकि कायोत्सर्ग तप एवं चारित्र की सर्वोच्च अवस्था है। अतः शिथिलीकरण को चारित्र व तप की सर्वोच्च अवस्था कायोत्सर्ग मानना, समझना वैसी ही भूल है जैसे ताँबे को सोना मानना, समझना । 114 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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