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________________ जाय, उसके प्रति राग-द्वेषात्मक, किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं की जाय अर्थात् उसका सहयोग व विरोध न किया जाय, तटस्थ व समतापूर्वक रहा जाय। प्रतिक्रिया करने से तादात्म्य हो जाता है; तादात्म्य बन्धन है। तादात्म्य का निरोध करना संवर है और तादात्म्य का विच्छेदन करना, बन्धन तोड़ना निर्जरा है। सर्वांश में तादात्म्य का नष्ट हो जाना निर्वाण है। ___ यह सभी को मान्य है कि सत् अप्राप्त नहीं है, सदैव प्राप्त है। प्राप्त सत् का संग निवृत्ति से ही सम्भव है। कारण कि प्रवृत्ति काल में मिले हुए से संग हो जाता है, वह ही असत् का संग है। इस दृष्टि से प्रवृत्ति का राग असत् के संग को पोषित करता है। जब तक साधक सहज निवृत्ति से होने वाले सत्संग को नहीं अपनाता तब तक प्रवृत्ति का राग नाश नहीं होता। बलपूर्वक प्रवृत्ति का निरोध निवृत्ति नहीं है अपितु प्रवृत्ति ही है। आवश्यक प्रवृत्ति के अन्त में अपनेआप आने वाली सहज निवृत्ति ही वास्तविक निवृत्ति है और उसी निवृत्ति से सत् का संग होता है। बलपूर्वक प्रवृत्ति के निरोध से हुई निवृत्ति के काल में देहाभिमान का भान नहीं होता है, परन्तु इसमें प्रवृत्ति की रुचि (राग) का नाश नहीं होता है, रुचि केवल बदलती है जो कालान्तर में पुनः उत्पन्न हो जाती है, प्रवृत्ति के राग का अत्यन्त नाश विवेकपूर्वक निवृत्ति से ही सम्भव है। विवेकयुत निवृत्ति वास्तविक विश्राम है, संवर है। यह विश्राम देह आदि किसी विनाशी के आश्रय से नहीं होता है, अतः अविनाशी है। अविनाशी होने से जीवन है। विश्राम में जीवन है, अक्षय रस (सुख) है। इस तथ्य को अपनाने से ही करने के राग का अन्त सम्भव है। जैसे भोजन भले ही भूख मिटाने में उपयोगी है, परन्तु भोजन से भूख मिटने पर भी भोजन की रुचि का नाश नहीं होता है। अपितु इससे भोजन की रुचि व वासना पुष्ट होती है जो भोजन को पुनः प्राप्त करने एवं नवीन प्रकार के भोजन करने की कामना उत्पन्न करती है। जो भोजन स्वाद का सुख लेने के लिए नहीं किया जाता, शरीर के हित के लिए किया जाता है, उसका प्रभाव अंकित नहीं होता, परन्तु जब तक लेशमात्र भी राग है तब तक की गई प्रवृत्ति का राग चिन्तन के रूप में उत्पन्न होता ही है। प्रवृत्ति के अन्त में स्वतः आनेवाली निवृत्ति रूप विश्राम को सुरक्षित रखना ही रागरहित होने का सुगम उपाय है। इस विवेकयुत विश्राम को ही जैन दर्शन में संवर और पतंजलि के योग सूत्र में संयम कहा है। अपनी ओर से कोई प्रवृत्ति न करने पर भी पूर्व में भुक्त-अभुक्त भोगों का अंकित प्रभाव नष्ट होने के लिए व्यर्थ चिन्तन के रूप में उदय (प्रकट) होता है। साधक को उस व्यर्थ चिन्तन से न तो भयभीत होना चाहिये, न विरोध करना चाहिए और 108 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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