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________________ आशय यह है कि चित्त करण या साधन है जिसका सदुपयोग लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे अधिक सहयोगी होता है। मन, वचन, शरीर, बुद्धि आदि करण हैं। इनके सदुपयोग से मानव अपने इष्ट लक्ष्य की उपलब्धि कर सकता है। उदाहरणार्थ आँख देखने में करण का कार्य करती है। आँख से किसी स्त्री को देखने से विकार की उत्पत्ति हो, इसके लिए आँख को दोषी मानना और उसकी शक्ति को व उसे नष्ट कर देना भयंकर भूल है। क्योंकि आँख के नष्ट हो जाने या निष्क्रिय कर देने से वासना नष्ट नहीं होती है। विकार व वासना आँख नहीं पैदा करती, आत्मा स्वयं पैदा करती है। अतः अपने दोष को करण पर आरोपित करने व उसका नाश कर देने से विकार नष्ट नहीं हो जाते हैं। इसी प्रकार चित्त भी स्वयं अशुद्ध नहीं है, इसमें जो अशुद्धि दिखती है, वह कर्ता के भावों की है। कर्ता के भावों का चित्र मन के दर्पण पर दिखाई देता है। वह चित्र कुरूप है, इससे दर्पण को फोड़ देना नितान्त भूल है। कारण कि दर्पण के फोड़ देने से, जिसमें कुरूपता है, वह उसकी कुरूपता नष्ट नहीं होती है। आशय यह है कि चित्त को अशुद्ध व चंचल मानकर उसे निष्क्रिय करना साधना नहीं है। ऊपर कह आए हैं कि चित्त करण है। करण का सबल, सशक्त होना, सक्रिय, गतिमान होना बुरा नहीं है। चित्त व्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति या सामर्थ्य है। वह हमें अभीष्ट रस देने-सुख पहुँचाने के लिए सदैव निरन्तर तत्पर व गतिमान रहता है, परन्तु संसार की जिस वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की प्राप्ति में हम सुख मानते हैं, वह वास्तविक सुख नहीं होने से उसमें नीरसता आती है। उस नीरसता को दूर करने के लिए नवीन कामनाओं की उत्पत्ति होती है, जिनकी पूर्ति के लिए चित्त गतिमान होता है, यह ही चित्त की चंचलता है। इस चंचलता का कारण व्यक्ति की अतृप्ति है। किसी भी व्यक्ति को सांसारिक वस्तुएँ पाकर कभी भी तृप्ति होना सम्भव नहीं है, कारण कि-(1) संसार की किसी भी वस्तु, परिस्थिति में सुख-दुःख है ही नहीं। (2) स्वयं वे वस्तुएँ पर-प्रकाश्य व नाशवान हैं, उनसे हमारी एकता व अभिन्नता सम्भव ही नहीं है। (3) उनसे सदैव दूरी, भेदभाव व भिन्नता रहती है, अतः सांसारिक नश्वर, अनित्य वस्तुओं को पाकर चित्त कभी भी तृप्त व सन्तुष्ट नहीं हो सकता। चित्त की यह चंचलता, अतृप्तता, असन्तुष्टि का दुःख ही सांसारिक वस्तुओं से अतीत की ओर जाने की प्रेरणा देता है, इसी से अध्यात्म का जन्म होता है, जिसका अर्थ है जिन नश्वरअनित्य-असत् वस्तुओं से तृप्ति नहीं होती, उनकी ओर दौड़ना बन्द करना है, उनकी दासता से मुक्त होना है, उनसे असंग होना है, राग-द्वेष रहित होना है। कायोत्सर्ग और चित्त-शुद्धि 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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