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सिद्धान्त के अर्थ का ध्यान करने की सार्थकता है। • धर्म ध्यान के अधिकारी मुनि का परिचय दे रहे हैं:
सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य।
झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स निट्ठिा।। 64 ।। जो मुनि मद, विषय, कषाय, विकार आदि सभी प्रमादों से रहित हैं, जिनका मोह क्षीण या उपशान्त हो गया है, ऐसे ज्ञानी मुनि धर्म ध्यान के अधिकारी कहे गये हैं।
व्याख्या:
आठ मद, पाँच विषय, चार कषाय, निन्दा, विकथा—ये प्रमाद कहे गये हैं। इनसे रहित मुनि अप्रमत्त ज्ञानी होते हैं। जो मोहनीय कर्म के क्षय से क्षीणमोह तथा मोहनीय कर्म के उपशान्त होने से उपशान्तमोह वाले होते हैं। ऐसे ज्ञानी मुनि धर्म ध्यान के ध्याता की योग्यता वाले होते हैं। यहाँ धर्म ध्यान के ध्याता मुमुक्षु मुनियों का निरूपण किया गया है। • धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के ध्याता की विशेषता प्रस्तुत करते हैं:--
एएच्चिय पुब्वाणं पुब्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा।
दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो ।। 65 ।। धर्म ध्यान के अभ्यास में परिपक्व जो पूर्वधर और सुप्रशस्त (वज्र ऋषभ नाराच) संहनन वाले मुनि होते हैं वे ही शुक्ल ध्यान के प्रथम दो प्रकारोंपृथक्त्व वितर्क विचार तथा एकत्व वितर्क अविचार के ध्याता हो सकते हैं। संयोगी केवली के तीसरे प्रकार का सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान होता है तथा अयोगी केवली के चतुर्थ प्रकार का व्यवच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान होता है। व्याख्या :
शुक्ल ध्यान के पहले के दो भेद के ध्याता पूर्वधर और प्रशस्त संहनन वाले होते हैं अर्थात् पूर्व के दो शुक्ल ध्यान के ध्याता अतिशय प्रशस्त संहनन तथा पूर्वो के ज्ञाता (श्रुत केवली) होते हैं और अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों के ध्याता क्रम से सयोगी केवली और अयोगी केवली होते हैं। पूर्व के दो शुक्ल ध्यान (1) पृथक्त्ववितर्क सविचार तथा (2) एकत्ववितर्क अविचार हैं और अन्तिम दो शुक्ल ध्यान (3) सूक्ष्म क्रिया निवृत्ति और (4) व्यवच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति हैं। 98 ध्यानशतक
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