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________________ साधना में प्रवेश ही सम्भव नहीं है। वैराग्य है विषय-भोगों के सुखों के प्रति विरति अर्थात् रति-अरति का अभाव । विरति ही विरक्ति व संयम के रूप में प्रकट होती है । जो विरक्त है वह ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र का अधिकारी है । अतः शुभ धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान के साधक के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र व वैराग्य भावना आवश्यक है । इनके अभाव में ध्यान में गति व प्रगति सम्भव नहीं है । जिसने चराचर जगत् के स्वभाव को भलीभाँति जान लिया है तथा जो संग (विषयासक्ति), भय और आशा से रहित हो चुका है उसका अन्तःकरण चूँकि वैराग्य भावना से सुसंस्कृत हो जाता है इसलिये वह ध्यान में अतिशय स्थिर हो जाता है, उससे कभी विचलित नहीं होता । देव-मनुष्यादि अवस्थाओं को प्राप्त करने वाले प्राणिसमूह का नाम ही जगत् है । जगत्, लोक और संसार – ये समानार्थक शब्द हैं। वह जगत् अनित्य व अशरण है, किन्तु 'यह मेरा है और मैं इसका स्वामी हूँ' इस प्रकार के मिथ्या अहंकार से ग्रसित होता हुआ जीव जन्म, जरा और मरण से आक्रान्त है । जो जन्मता है वह मरता अवश्य है और मरण का दुःख ही सर्वाधिक दुःख माना जाता है। आचार्य समन्तभद्र का यह कथन सर्वथा अनुभवगम्य है—यह अज्ञानी प्राणी मृत्यु से डरता है, परन्तु उसे उससे छुटकारा मिलता नहीं है। साथ ही सुख को चाहता है, पर वह भी उसे इच्छानुसार प्राप्त नहीं होता । यह जगत् का स्वभाव है । फिर भी अज्ञानी प्राणी इस वस्तुस्थिति को न जानकर निरन्तर मरण के भय से पीड़ित और सुख की अभिलाषा से सदा संतप्त रहता है। जड़ शरीर के सम्बन्ध से जो कर्म का बन्धन होता है उससे चेतन - माता-पिता आदि, अचेतन -- धन-सम्पत्ति आदि–इन बाह्य पदार्थों में ममत्वबुद्धि होती है जिसके वशीभूत होकर वह उन विनश्वर पर - पदार्थों को स्थायी समझता है व उनके संरक्षण के लिये व्याकुल होता है । वह यह नहीं जानता कि जन्म-मरण का अविनाभावी सम्बन्ध है, जिन बन्धुजनों को प्राणी अपना व अपने सुख का कारण मानता है वे वास्तव में दुःख के ही कारण हैं तथा जिस धन से वह सुख की कल्पना करता है वह सुख का साधन न होकर तृष्णाजनित दुःख का ही कारण होता है तथा लोक में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो दुःख का कारण न हो। ऐसी वस्तुस्थिति के होते हुए भी खेद है कि यह अज्ञानी प्राणी अपनी अज्ञानता से स्वयं दुःखी हो रहा है। इस प्रकार के जगत् के स्वभाव को जो जान चुका है उसे न तो विषयों में आसक्ति रहती है, न इहलोक व परलोकादि सात भयों में से कोई भय भी पीड़ित करता है, और न इस लोक व परलोक सम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यानशतक 81 www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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