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________________ राग व मोह तथा अपूर्ति से द्वेष अंकित होता है जिससे आर्त ध्यान भोगेच्छा का द्योतक है। भोगेच्छा की पूर्ति संसार की वस्तुओं से होती है। अतः भोगी या आर्त ध्यानी संसार को पसन्द करता है, उसे भोग भोगने के लिए सदा संसार में रहना है। भोग व भोग्य सामग्री ही उसका जीवन है। वह इन्हें बनाये रखने में व बढ़ाने में लगा रहता है। अत: राग, द्वेष, मोहग्रस्त आर्त ध्यान या भोगमय जीवन संसार बढ़ाने वाला है। कहा भी है :--'भोगी भमई संसारे' अर्थात् भोगी संसार में भ्रमण करता है। संसार में तिर्यंच गति के अतिरिक्त अन्य गतियों का काल सीमित है। अत: अधिक काल तक कोई जीव अन्य गतियों में नहीं रह सकता, केवल तिर्यंच गति में ही जीव अधिक व अनन्तकाल तक रह सकता है। रौद्रत्व व क्रूरता के भाव नरकत्व अर्थात् नरकगति के सूचक हैं; त्याग भाव मनुष्यता अर्थात् मनुष्यगति का सूचक है; मृदुता, ऋजुता, मैत्री आदि दिव्य गुण देवत्व अर्थात् देवगति के सूचक हैं; भोग भोगने रूप पशुता तिर्यंचत्व की सूचक है। अत: भोगी या आर्त ध्यानी तिर्यंच गति में जाने का पात्र होता है। • मुनि का ध्यान समता वाला होता है। यह निरूपण करते हुए कहते हैं:मज्झत्थस्स उ मुणिणो सकम्मपरिणामजणियमेयंति । वत्थुस्सभावचिंतणपरस्स समं (म्म) सहंतस्स ।। 11।। मध्यस्थ भाव रखने वाले, 'अपने कर्म के फलस्वरूप ये रोगादि अनिष्ट संयोग रूप दु:ख उत्पन्न हुए हैं'-इस प्रकार वस्तु स्वभाव के चिन्तन में तत्पर, सम्यक् प्रकार (राग-द्वेषरहित-समभाव) से रोगादि सहन करने वाले मुनि का ध्यान समता वाला होता है, आर्त ध्यान नहीं होता है। व्याख्या : मुनि इष्ट-अनिष्ट के संयोग-वियोग के रूप में प्रकट हुई सुखद-दु:खद परिस्थिति को कर्म के उदयजनित मानता है और कर्म का उदय निर्जरित होने के लिए ही होता है—इस वस्तु स्वभाव को जानकर कर्मोदय से उत्पन्न हुई वेदना के प्रति मुनि मध्यस्थ (तटस्थ) भाव रखते हुए समत्वभावपूर्वक सहन करता है, राग-द्वेष नहीं करता है जिससे मुनि के आर्त ध्यान नहीं होता है। • संयमी मुनि के आर्त ध्यान नहीं होता। यह प्रस्तुत करते हैं : कुणओ व पसत्थालंबणस्स पडियारमप्पसावज्जं। तव-संजमपडियारं च सेवओ धम्ममणियाणं ।। 12 ।। अमनोज्ञ संयोग में प्रशस्त (शुभ) अध्यवसान का आलम्बन लेने वाले, ध्यानशतक 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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