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37. आलोयणा निरवलावे, आवईसु दढधम्मया ।
अणिस्सि ओवहाणे य सिक्खा णिप्पडिकम्मया ।। 1274।। अण्णायया अलोहे य, तितिक्खा अज्जवे सुई । सम्मदिट्ठी समाही य आयारे विणओवए । । 1275 ।। धिई मई य संवेगे, पणिही सुविहि संवरे । सव्वकामविरत्तिया । । 1276 ।।
अत्तदोसोवसंहारो,
अप्पमाए लवालवे ।
उद्दए पायच्छित्तकरणे
इय |
बत्तीसं जोगसंगहा ।। 12781। आवश्यकनिर्युक्ति II, पृष्ठ 116
पच्चक्खाणा विउस्सगे,
झाणसंवरजोगे य,
संगाणं च परिण्णां, आराहणा य मरणंते,
38. ध्यानशतक, गाथा, 3,36-37, 74 77, 85
39. वही, 11
40. वही, 30-34
41. वही, 43
42. वही, 45-63
43. वही, 70
44. वही, 71-72
45. वही, 32
46. पातञ्जल योगसूत्र, I/12
47. ध्यानशतक, गाथा, 2,77
48. नथमल टाटिया (1986), 'जैन परम्परा में योग', जैन मेडिटेशन चित्त समाधिः जैन योग, जैन
विश्वभारती, लाडनूँ, पृष्ठ - 11
49. 'अपरिकर्मितमनसोऽसूयादिमतः..
मारणंतिए । । 1277
यस्य चित्तस्य व्युत्थितस्येदं परिकर्म इत्यर्थः । मैत्रीकरुणेत्यादि प्रसादनान्तं सूत्रम्, तत्त्ववैशारदी, योगसूत्र, 1/33
50. 'एवमस्य भावयतः शुक्लो धर्म उपजायते । ततश्च चित्तं प्रसीदति प्रसन्नमेकाग्रं स्थितिपदं
लभते ।' व्यासभाष्य, योगसूत्र, I/33
51. 'प्रतिक्रमामि चतुर्भिर्ध्यानैः...
आवश्यक निर्युक्ति II, पृष्ठ 61
52 ध्यानशतक
52. ध्यानशतक, गाथा, 107
53. अंगपणिट्ठ सुत्ताणि I, पृष्ठ 1-109
54. आवश्यकचूर्णि (आवश्यकनिर्युक्ति पर ), आर. के. श्वेताम्बर संस्थान, रतलाम, 1928 55. B. Bhatt (2005 ) : ( a ) Jainism vis-a-vis Brahamanism', Jabu-jyoti,
Shresthi Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi, Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre, Ahmedabad, 2005, P. II-35; (b) Twelve anuvekhas in early Jainism, Festschrift Klaus Bruhn; st. II (1994), Verlag fur Orientalistische Fach Publikationen Reinbek, 1994, P. 171185
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अयं ध्यानसमासार्थः । व्यासार्थस्तु ध्यानशतकादवसेयः ।'
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