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________________ इस प्रकार स्वाध्याय के भेदों में परिगणित अनुप्रेक्षा तथा अनित्य-अशरण आदि अनुप्रेक्षाओं में अन्तर को इंगित करने की दृष्टि से सम्भवतः जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा धर्म ध्यान के आलम्बन के रूप में 'अणुचिन्ताओ' पद का प्रयोग मौलिक है जो स्वाध्याय में परिगणित अनुप्रेक्षा (याद करना) से भिन्न ध्यान का आलम्बन बनने की योग्यता को दर्शाने का प्रयास प्रतीत होता है। _शुक्ल ध्यान धर्म ध्यान से सूक्ष्मतर है, ध्याता शुक्ल ध्यान द्वारा सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है, समस्त कर्म क्षय कर देता है। 108 शुक्ल ध्यान एगत्त (एकत्व) के साथ पुहुत्त (पृथक्त्व) और एक विषय पर बिना विचार के स्थिर रहना है। जिसके 'सुहमकिरिया' सूक्ष्म शरीर क्रिया शेष रहती है, वह भी अन्त में शुक्ल ध्यान द्वारा पूर्णतः समाप्त हो जाती है जिसे 'समुच्छिन्नकिरिये' या 'वोच्छिन्न किरिय' पदों द्वारा प्रकट किया है। 109 योग सूत्र में सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात समाधि का क्रम धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान के निकट प्रतीत होता है। पातंजल योगसूत्र में सूक्ष्म-विषय-निर्वीज समाधि के लिए कथन किया है कि- 'तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः समाधिः' अर्थात् चित्तवृत्ति के विलीन होने पर शेष बचे सर्ववासना संस्कार के भी निरुद्ध से जाने पर वह संस्कारशून्य निर्बीज समाधि कहलाती है। योगसूत्र में निरूपित संप्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि के स्वरूप तथा भेद-प्रभेद की तुलना जैन दर्शन-सम्मत ध्यान के प्रकार, धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान से की जा सकती है जिनमें पारिभाषिक शब्दावली का साम्य भी दर्शनीय है। 110 ध्यानशतक में क्रमश: आलम्बन, अनुप्रेक्षा और लक्षण (लिङ्ग) के क्रम से शुक्ल ध्यान का निरूपण किया गया है। शुक्ल ध्यान के चार आलम्बन इस प्रकार है-खंति (क्षमा), मद्दव (मार्दव-मृदुता), अज्जव (आर्जव-सरलता), मुत्ती (त्याग)। शुक्ल ध्यान के ये आलम्बन दस-समण-धम्म में से संगृहीत प्रतीत होते हैं।11 स्थानाङ्ग सूत्र12, तत्त्वार्थ सूत्र113 में खंति आदि का क्रम ध्यानशतक के समान ही है किन्तु खंति आदि आलम्बन भगवती सूत्र में 'लक्षण' के अन्तर्गत परिगणित हैं तथा 'विवेग' आदि ‘लक्खणा' वहाँ 'आलम्बन' के रूप में परिगणित हो गये हैं। 14 महर्षि पतंजलि ने कहा कि सुखी प्राणियों के प्रति मैत्री, दुःखी प्राणियों पर करुणा, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता तथा अपुण्यशीलों के प्रति उपेक्षा की भावना से चित्त-प्रसाद (चित्त-निर्मल) होता है।15 यह ध्यान में सहायक होता है। ध्यानशतक में शुक्ल ध्यान के चार लिङ्ग (लक्षण) इस प्रकार है1. अवह (अवध) 2. असंमोह 3. विवेग (विवेक) 4. विउसग्ग (व्युत्सर्ग)। प्रस्तावना 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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