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अणुपेहा—अनुप्रेक्षा (पूर्व पठित का मूल और अर्थ याद करना); धर्मकथा (व्याख्यान देना) में अनुप्रेक्षा का प्रयोग सदा एकवचन में हआ है जिसका सम्बन्ध आगमों के अध्ययन-मनन से है। यहाँ अनुप्रेक्षा का अर्थ आगम ग्रन्थों के मूल व अर्थ को हृदयंगम या स्मरण या याद करना है, जो अर्थ बारह अनुप्रेक्षाओं (बहुवचन) से भिन्न है। तप के भेदों में सम्मिलित स्वाध्याय का महत्त्व जैन तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। पतंजलि के योग सूत्र पर व्यासभाष्य में कहा है कि स्वाध्याय से योग (ध्यान) होता है और योग से स्वाध्याय । स्वाध्याय और योग से परमात्मा प्रकाशित होता है। 5 तप और स्वाध्याय ये दो भिन्न तत्त्व साथसाथ चलते हैं।
स्वाध्याय और प्रवचन ऋत, सत्य, तप और नाक (स्वर्ग) है—ऐसा उपनिषद् वचन है, स्वाध्याय और तप भिन्न-भिन्न होकर भी यहाँ साथ-साथ चलते हैं।” सारांशतः स्वाध्याय का भेद अनुप्रेक्षा और द्वादश अनुप्रेक्षाएँ साथसाथ चलती हैं।
धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा के साथ ध्यान करने की परम्परा आवश्यकचूर्णि की कतिपय गाथाओं तथा ध्यान-शतक की गाथाओं में प्रदर्शित है। यद्यपि आवश्यकचूर्णि और ध्यानशतक की गाथाएँ भिन्न हैं तथापि ध्यान का वर्णन दोनों में प्रायः समान है। यही परम्परा
औपपातिक, भगवती सूत्र, स्थानाङ्ग सूत्र में तो मिलती है किन्तु प्राचीन आगम जैसे उत्तराध्ययन (30.6-37), आचाराङ्ग, आवश्यकनियुक्ति गाथा 14621496, तत्त्वार्थसूत्र 9/19-46 में धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की सीधी परम्परा है, लक्षण-आलम्बन और अनुप्रेक्षा के माध्यम से नहीं।
जिनभद्र क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में चार प्रकार के ध्यान का निरूपण किया है- 1. आर्त ध्यान 2. रौद्र ध्यान 3. धर्म ध्यान और 4. शुक्ल ध्यान ।
आर्त ध्यान तथा रौद्र ध्यान को हेय बताकर उपादेय धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का निरूपण 12 द्वारों से करते हैं1. भावना
2. देश 3. काल
4. आसनविशेष 5. आलम्बन
6. क्रम 7. ध्यातव्य
8. ध्याता 9. अनुप्रेक्षा
10. लेश्या 11. लिंग
12. फल
प्रस्तावना 47
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