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________________ चरण में सर्व कर्मों का क्षय हो जाता है, अत: कम्मविसोही करणं इस 'झाणाज्झयण' नामक ग्रन्थ का ही विशेषण है, अतः इस समस्तपद को उस रूप में लेना चाहिए---कम्मविसोही करणं झाणाज्झयणं । मेरी दृष्टि में इस गाथा का अन्वय भी इस रूप में करना होगा जिनभद्द खमासमणेहिं गाहा पंचुत्तरेण सएण जइणो कम्मविसोही करणं जं झाणाज्झयणं समक्खायं। इसी गाथा के आधार पर 'विनयभक्ति सुन्दर चरण ग्रन्थमाला' द्वारा प्रकाशित संस्करण में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को इसका कर्ता बतलाया गया है, किन्तु यहाँ एक समस्या यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कुछ प्रकाशित संस्करणों में एवं हरिभद्र की आवश्यक वृत्ति में मात्र 105 गाथाएँ ही मिलती हैं। उसमें 106वीं गाथा नहीं है। इस आधार पर पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने ध्यानशतक की अपनी भूमिका में यह शंका प्रस्तुत की है कि ध्यानशतक के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नहीं हैं। यदि हम पण्डितजी की इस बात को स्वीकार करके यह मान भी लें कि 106वीं गाथा मूल ग्रन्थकार की न होकर के बाद में किसी के द्वारा जोड़ी गई है तो भी इस आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नहीं हैं, क्योंकि स्वयं पण्डित बालचन्द्र शास्त्री ने अपनी भूमिका में ही इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपनी कृतियों-- यथा विशेषावश्यक भाष्य, जीतकल्प भाष्य आदि में भी लेखक के रूप में अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु इस कर्ता के नाम के अनुल्लेख से 'ध्यानाध्ययन' की अन्यकृतकता सिद्ध नहीं होती है। हम उनसे सहमत होकर यह मान सकते हैं कि यह अन्तिम गाथा बाद में किसी के द्वारा जोड़ी गई है, किन्तु उनकी इस बात से प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता जिनभद्रगणि नहीं हैं, यह फलित नहीं होता है, क्योंकि इस सम्बन्ध में अन्य अनेक साधक प्रमाण भी उपस्थित हैं। यह भी सत्य है कि इस 106वीं गाथा में यह कहा गया है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया। यह कथन स्वयं लेखक के द्वारा तो नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि लेखक स्वयं इस गाथा के रचयिता होते तो वे यह लिखते, 'मुझ जिनभद्रगणि द्वारा रचा गया', अतः इस गाथा का अन्यकृतक और प्रक्षिप्त होना तो सिद्ध है, किन्तु पण्डित बालचन्द्र शास्त्री का यह कहना कि यह गाथा असम्बद्ध-सी है, उचित नहीं, क्योंकि प्रस्तुत गाथा में 14 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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