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________________ विनाशी हैं। सुख, दुःख, परिस्थिति, अवस्था, तन, मन, धन, स्वजन, परिजन, मित्र, भूमि, भवन, सब अनित्य हैं । राजा, राणा, सम्राट्, चक्रवर्ती, शहंशाह, सेठ साहूकार, विद्वान्, धनवान्, सत्तावान्, शक्तिमान्, सब अन्त में मरकर मिट्टी में मिल जाते हैं। पानी के पताशे जैसा तन का तमाशा है। संसार के सब पदार्थ क्षण-क्षण क्षीण होकर नष्ट हो रहे हैं, क्षणिक हैं। हाथी के कान के समान, संध्या सूर्य के समान, ओस की बूँद के समान, पीपल के पत्ते के समान अस्थिर हैं । अनित्य का मिलना भी न मिलने के समान है अर्थात् मिलना न मिलना, दोनों एक समान हैं, अतः अनित्य पदार्थों को चाहना, उनका भोग भोगना सब व्यर्थ हैं। ऐसी प्रज्ञा से पदार्थों की अनित्यता का प्रत्यक्ष अनुभव कर समता में स्थित रहना, उनके प्रति राग-द्वेषात्मक प्रतिक्रिया न करना अनित्यानुप्रेक्षा है । अशरणानुप्रेक्षा -- ध्यान में साधक अन्तर्जगत् में शरीर व संवेदनाओं की अनित्यता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है । इस अनुभूति से वह जानता है कि अनित्य पदार्थों का आश्रय लेना, उनके सहारे से जीवन मानना भूल है। कारण कि जो पदार्थ स्वयं ही अनित्य है उनका सहारा या शरण कैसे नित्य हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता । अतः अनित्य पदार्थों का सहारा, आश्रय, शरण ना धोखा खाना है। ध्यानमग्न साधक देखता - अनुभव करता है कि तन प्रतिक्षण बदल रहा है अतः यह आश्रय लेने योग्य नहीं है, शरणभूत नहीं है । जब तन ही शरणभूत नहीं है, आश्रय योग्य नहीं है तब धन, परिजन, स्त्री, मित्र आदि आश्रय लेने योग्य हो ही नहीं सकते। ऐसा अनुभूति के स्तर पर बोध कर अनित्य पदार्थों के आश्रय का त्याग कर देना, अविनाशी स्वरूप में स्थित हो जाना अशरणानुप्रेक्षा है। I संसारानुप्रेक्षा— साधक जब ध्यान की गहराई में प्रवेश करता है तो अनुभव करता है कि संवेदनाएँ उसे अशान्त बना रही हैं, जला रही हैं, सारा अन्तर और बाह्य लोक प्रकम्पन की आग में जल रहा है। संसार में एक क्षण भी लेश मात्र भी सुख नहीं है । जो बाहर से साता व सुख का वेदन हो रहा है, वह भी भीतरी जगत् में दुःख रूप ही अनुभव हो रहा है, आकुलता, उत्तेजना पैदा कर रहा है । संवेदना चाहे वह सुखद ही हो, वस्तुतः वह वेदना ही है अर्थात् दुःख रूप ही है । दुःख से मुक्ति पाने के लिए इस संसार से, शरीर से अतीत होने में ही कल्याण है। अर्थात् लोकातीत, देहातीत, इन्द्रियातीत होने में ही, अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुख की उपलब्धि सम्भव है । इन चारों अनुप्रेक्षाओं में से एकत्वानुप्रेक्षा से ध्रुवता - अमरत्व का अनुभव, 100 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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