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प्रकाशकीय
योग और ध्यान किसी-न-किसी रूप में भारत की लगभग सभी धार्मिकदार्शनिक परम्पराओं के अंग रहे हैं। जैन परम्परा में भी आरम्भ से ही ध्यान का महत्त्व रहा है। जैन धर्म का सबसे प्राचीन ग्रंथ, श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार, भगवान् महावीर के प्रारंभिक उद्बोधनों का संग्रह आचारांग सूत्र है । आचारांग के कुछ अंश सीधे ध्यान से संबंधित हैं । आचारांग में पहली बार 'विपश्शती' शब्द का भी उपयोग हुआ है। महावीर के जीवन चरित्र - जो कल्पसूत्र व बाद के ग्रंथों में अंकित है—से भी प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर ध्यान करते रहे थे। ऐसा लगता है कि किसी काल में कर्मकाण्ड की औपचारिकताओं का महत्त्व बढ़ गया और ध्यान, योग आदि जैन धर्म में गौण हो गए।
प्राकृत भारती अकादमी जैन परम्परा में योग के प्रति व्याप्त उदासीनता दूर करने के प्रयास में संलग्न रही है। इसी योजना के अन्तर्गत हम पूर्व में हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र, श्रीमद् देवचन्द्र की अध्यात्म गीता, पद्मानन्द के वैराग्य-: - शतक आदि ग्रन्थों का प्रकाशन कर चुके हैं। अब इस योजना को एक नया वेग दिया जा रहा है जिससे शीघ्र ही जैन ध्यान तथा जैन, बौद्ध और वैदिक ध्यान सिद्धान्तों व प्रक्रियाओं के तुलनात्मक अध्ययन संबंधी विविध आयामों पर एक के बाद एक कई पुस्तकें पाठकों को उपलब्ध कराई जायेंगी ।
ध्यानशतक संभवत: जैन परम्परा में ध्यान विषय की सबसे प्राचीन, स्वतंत्र व सुनियोजित कृति है । इतिहासकारों के मत में इसे छठी शताब्दी ईसवी की कृति माना जाता है । इसमें ध्यान की परिभाषा से आरंभ कर अनेक संबंधित विषयों की सविस्तार चर्चा की गई है। ध्यानशतक आचारांग के बाद ध्यान का सबसे प्रमुख ग्रन्थ है | धवला जो जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और जो 9वीं सदी का है, उसमें ध्यानशतक की करीब आधी गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। इससे भी इस ग्रन्थ के महत्त्व का पता लगता है।
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प्रकाशकीय 9
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