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गाला।
प्रकाशकीय निवेदन जैन आगम ग्रन्थों के प्रकाशनके लिए अब तक अनेक व्यक्ति और संस्थाओंने प्रयत्न किया है। ई. १८४८ में सर्व प्रथम स्टिवेन्सन ने कल्पसूत्रका अनुवाद प्रकाशित किया किन्तु वह क्षतिपूर्ण था । वस्तुतः वेबर ही सर्वप्रथम विद्वान माने जायंगे जिन्होंने इस दिशामें नया प्रस्थान शुरू किया। उन्होंने ई. १८६५-६६ में भगवती सूत्रके कुछ अंशो का संपादन किया और उन पर टिप्पणीरूप अपना अध्ययन भी लिखा ।
राय धनपतसिंह बहादुरने आगमों का प्रकाशन १८७४ में शुरू किया और कई आगम प्रकाशित किये किन्तु उनका मूल्य हस्तप्रतों की मुद्रित आवृत्तिसे कुछ अधिक था । फिर भी- विद्वानों को दुर्लभ वस्तु सुलभ बनानेका श्रेय उन्हें है ही। जेकोबीका कल्पसूत्र (ई. १८७९), और आचारांग (ई. १८८२), ल्युमनका औपपातिक (ई. १८८३ ) और आवश्यक (ई. १८९७), स्टेइन्थलका ज्ञाताधर्मकथा का कुछ अंश (ई. १८८१), होर्नलका उपासकदशा (ई. १८९०), ३ आचारांग (ई. १९१०) इत्यादि ग्रन्थ आगमों के संपादनकी कला में आधुनिक विद्वानों को संमत ऐसी पद्धति को अपनाकर प्रकाशित हुए थे। फिर भी लाला सुखदेव सहायद्वारा ऋषि अमोलककृत हिन्दी अनुवाद के साथ (ई.१९१४-२०) जो ३२ आगम प्रकाशित हुए तथा आगमोदय समिति द्वारा समग्र सटीक आगमों का ई. १९१५में जो मुद्रण प्रारंभ हुआ उनमें उस पद्धति की उपेक्षा ही हुई । आचार्य सागरानन्दमूरि द्वारा संपादित संस्करण शुद्धिकी और मुद्रण की दृष्टि से राय धनपतसिंहके संस्करणसे आगे बढा हुआ है और विद्वानोंके लिये उपयोगी भी सिद्ध हुआ है। इस संस्करणके प्रकाशनके बाद जैनधर्म और दर्शनके अध्ययन और संशोधन में जो प्रगति हुई उसका श्रेय आचार्य सागरानन्दमूरिको है। किन्तु इतना होने पर भी आगमों की आधुनिक पद्धतिसे समीक्षित वाचना की आवश्यकता तो बनी ही रही थी। पाटनमें ई.१९४३ में आगम प्रकाशनके लिए जिनागम प्रकाशिनी संसदको स्थापना की गई किन्तु उससे अब तक कुछ भी प्रकाशन हुआ नहीं। पू. पा. मुनिश्री पुण्यविजयजी लगातार चालीससे भी अधिक वर्ष से इस प्रयत्नमें हैं कि आगमोका सुसंपादित संस्करण प्रकाशित हो । उन्होंने इस दृष्टिसे प्राचीन प्रतों की शोध करके कई मूल आगमों और उनकी प्राकृत-संस्कृत टीकाओं के पाठ संशोधित किए हैं। इतना ही नहीं उन्होंने टीकाओं में या अन्य ग्रन्थों में आगमोंके जो अवतरण आये हैं उनका आधार लेकर भी परशुद्धिका प्रयत्न किया है। उनके
प्रयत्नको ही मुख्यरूपसे नजर समक्ष रख कर स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डान्द प्रसादने ई. १९५३ में प्राकृत ग्रन्थ परिषद्की स्थापना की । अबतक इस परिषद् के द्वारा प्राकृत भाषाके कई महत्वक ग्रन्थ सुसंपादित होकर प्रकाशित हुए हैं। तथा पं. हरगोविंददासका सुप्रसिद्ध पाइयसदमण्णवो भी पुनः मुद्रित हुआ है । प्राकृत ग्रन्थपरिषद् के द्वारा सटीक आगमों का प्रकाशन होना है यह जानकर केवल मूल आगमों के प्रकाशनके लिए बंबईके महावीर जैन विद्यालयन ई. १९६० में योजना बनाई और पू. मुनिश्री का सहकार मांगा जो सहर्ष दिया गया।
यह परम हर्षका विषय है कि प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अब अपने मुख्य ध्येय के अनुसार आगमप्रकाशनके क्षेत्रमें भी प्रवेश कर रही है और समग्र आगमके मंगलभूत नन्दीसूत्र आ० जिनदास महत्तर कृत चूर्णि और आचार्य हरिभद्रकृत वृत्ति आदिके साथ नवम और दशम ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित कर रही है। इसका श्रेय पू. पा. मुनिराज श्री पुण्यविजयजी को है जिन्होंने बढे परिश्रम से इनका संपादन दीर्घकालीन अध्यवसायसे अनेक हस्तप्रतो और टीकाओंके आश्रयसे किया है। इसके लिए प्राकृत अन्य परिषद् और विद्वज्जगत उनका ऋणी रहेगा ।
ता. २९-६-६६
दलसुख मालवणिया
मंत्री
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