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महानिसीह-सुय-खंधं - -
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सत्तमज्झयणं [पच्छित्तसुत्तं]
[१] 'भयवं ! ता एय नाएणं जं भणियं आसि मे, तुमं । जहा परिवाडिए तच्चं किं न अक्खसि पायच्छित्तं ? ॥१॥ तत्थ मज्झ' अवी हवइ गोयम ! पच्छित्तं जइ तुमं तं आलंबसि । णवरं धम्म-वियारो ते कओ सुवियारिओ फुडो ॥२॥ ण होइ, ‘एत्थ' पच्छित्तं पुणरवि पुच्छेज्ज' गोयमा ! संदेहं जाव देहत्थं मिच्छत्तं ताव निच्छयं ॥३॥ मिच्छत्तेण य अभिभूए तित्थयरस्स अवि भासियं । वयणं लंघित्तु विवरीयं वाएत्ताणं ॥४॥ पविसंति घोरतम-तिमिर-बहलंधयारं पायालं । णवरं सुवियारियं काउं तित्थयरा सयमेव य । भणंति, तं तहा चेव गोयमा ! समणुट्ठए ।।५।।
[२]
अत्थेगे गोयमा ! पाणी जे पव्वज्जिय जहा तहा। अविहीए तह चरे धम्मं जह संसारा ण मच्चए॥६॥ 'से भयवं! कयरे णं से विही-सिलोगों ? गोयमा ! इमे णं से विहि-सिलोगो, तं जहांचिइ-वंदण-पडिक्कमणं, जीवाजीवाइ-तत्त-सब्भावं । समि-इंदिय-दम-गुत्ति-कसाय-निग्गहणमुवओगं ||७|| नाऊण सुवीसत्थो सामायारि किया-कलावं च। आलोइय-नीसल्लो, आगब्भा परम-संविग्गो ॥८॥ जम्म-जर-मरण-भीओ चउ-गइ संसार-कम्म-दहणट्ठा । पइदियहं हियएणं एवं अणवरय-झायंतो ॥९॥ जरमरण-मयर-पउरे रोग-किलेसाइ-बहुविह-तरंगे। कम्मट्ठ-कसाय-गाह-गहिर-भव-जलहि मज्झम्मि ॥१०॥ भमिहामि भट्ठ-सम्मत्त-नाण-चारित्त-लद्ध-वरपोओ। कालं अणोर-पारं अंतं दुक्खाणमलभंतो ॥११॥ ता कइया सो दियहो जत्था-हं सत्तु-मित्त-सम-पक्खो। नीसंगो विहरिस्सं सुह-झाण-णीरंतरो पुणोऽभवढं ? ॥१२॥
[३] एवं चिर-चिंतियाभिमुह-मणोरहोरु संपत्ति-हरिस-समुल्लसिओ। भत्ति-भर-निब्भरोणय -रोमंच-उकंच-पुलय-अंगो ॥१३॥
१ इ तस्स प. खं ला.। २'यण खं.।
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