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प्रमाणप्रमेयकलिका
है। असम्भव नहीं कि जिनसेन और उनके अनुज नरेन्द्रसेन दोनों मल्लिषेणके गुरु रहे हों-दोनोंसे उन्होंने भिन्न-भिन्न विषयों या एक विषयका अध्ययन किया हो। मल्लिषेण सकलागमवेदी, मन्त्रवादमें निपुण और उभय ( प्राकृत-संस्कृत )-भाषा विज्ञ थे। महापुराणकी प्रशस्तिमें इन्होंने अपना समय शकसंवत् ९६९ ( ई० १०४७ ) दिया है । वादिराज और मल्लिषेण दोनों प्रायः समकालीन विद्वान् हैं-उनके समयमें सिर्फ बाईस वर्षका अन्तर है। अतः मेरा अनुमान है कि जिन नरेन्द्रसेनका उल्लेख वादिराजने किया है उन्हीं नरेन्द्रसेनका मल्लिषेणने किया है। यदि यह अनुमान ठीक हो, तो प्रथम नं०के नरेन्द्रसेन और ये द्वितीय नं०के नरेन्द्रसेन दोनों भिन्न नहीं हैं-अभिन्न ही हैं।
३. तीसरे नरेन्द्रसेन 'सिद्धान्तसारसंग्रह' और 'प्रतिष्टादीपक'के कर्ता हैं, जो अपनेको इन ग्रन्थोंकी अन्तिम समाप्ति-पुष्पिकाओंमें 'पण्डिताचार्य' की उपाधिसे भूषित प्रकट करते हैं। इनके उल्लेख निम्न प्रकार हैं :
श्रीवीरसेनस्य गुणादिसेनो जातः सुशिप्यो गुणिनां विशेष्यः । शिष्यस्तदीयोऽजनि चारुचित्तः सदृष्टिचित्तोऽत्र नरेन्द्रसेनः ॥
श्रादुष्षमा-निकटवर्तिनि कालयोगे नष्टे जिनेन्द्रशिववर्त्मनि यो वभूव। आ चुका है। जान पड़ता है कि ये कनकसेन और वादिराज-द्वारा उल्लिखित कनकसेन दोनों एक हैं।
१. देखिए, इन ग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ अथवा उक्त प्रशस्तिसंग्रह पृ० १३४ ।
२. (क) 'इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे पण्डिताचार्यनरेन्द्रसेनाचार्यविरचिते द्वादशोऽध्यायः । समाप्तोऽयं सिद्धान्तसारसंग्रहः ।'
-सि. सा. सं., जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर संस्करण । (ख) इति श्रीपण्डिताचार्यश्रीनरेन्द्रसेनाचार्यविरचितः प्रतिष्ठादीपकः ।'
-देखिए, उपर्युक्त सिं. सा. सं. प्रस्ता. पृ. ११।
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