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________________ प्रस्तावना किस लिए किया जाता है ? आश्चर्य है कि शब्दों-द्वारा जो कहा जाता है वह अवस्तु है और जो वस्तु है वह उनके द्वारा कही नहीं जाती। ऐसी स्थितिमें शब्द-प्रयोग बिना दूसरोंको वस्तु-प्रतिपत्ति कैसे करायी जा सकती है ? क्योंकि परार्थ-प्रतिपत्तिका एकमात्र साधन शब्द ही है और वे अर्थप्रतिपादक है नहीं। अन्ततोगत्वा बुद्धकी सब देशना निरर्थक सिद्ध होती है। अतः दूसरों ( विनेयजनों) को वस्तु-प्रतिपत्ति कराने के लिए शब्दोंका प्रयोग आवश्यक है और उन्हें वस्तुका प्रतिपादक भानना चाहिए । अपि च, वास्तविक ताल्वादि-परिस्पन्दरूप कारणसे उत्पन्न होने वाले शब्द अवस्तु कैसे कहे जा सकते हैं ? अतः शब्द वस्तु हैं और अर्थ भी वस्तु है तथा दोनोंमें वाच्य-वाचक सम्बन्ध मौजूद है। इसके साथ ही शब्दोंमें अर्थको प्रतिपादन करनेकी स्वाभाविक योग्यता और संकेत-शक्ति भी विद्यमान है। अतएव शब्द वस्तु के प्रतिपादक हैं। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व अवक्तव्य नहीं है, किन्तु शब्दों द्वारा वह वक्तव्य है। नरेन्द्रसेनने इस सम्बन्धमें भी अपने विचार प्रस्तुत करते हुए स्वामी समन्तभद्र आदि आचार्योंके वचनों-द्वारा दृढ़ताके साथ समर्थन किया है कि वस्तु जिस प्रकार प्रमाणद्वारा प्रमेय है उसी प्रकार वह शब्दों-द्वारा वक्तव्य भी है-वचनों-द्वारा उसका प्रतिपादन भी किया जाता है। (ऊ) सामान्य-विशेषात्मक प्रमेय-सिद्धि : ऊपरके विवेचनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि प्रमेय-प्रमाणका विषय सामान्यविशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, भेदाभेदात्मक एवं भावाभावात्मक वस्तु है । प्रमाण इसी प्रकारकी जात्यन्तर वस्तुको विषय करता है। इस प्रकारको प्रतीति-सिद्ध वस्तुको स्वीकार करने में विरोध, वैयधिकरण्य आदि कोई दोष नहीं है। समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलङ्क, विद्यानन्द आदि युग-प्रतिनिधि जैन विद्वानोंने युक्ति-प्रमाण-पुरस्सर प्रमेयको सामान्यविशेषात्मक सिद्ध करके अनेकान्तवादको प्रतिष्ठा की है। सिद्धसेनका सन्मतिसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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