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________________ प्रस्तावना ४१ अपनी उन व्यक्तियोंसे स्वतन्त्र, नित्य, एक और अनेकानुगत सत्ता रखता हो और समवाय सम्बन्धसे उनमें रहता हो । यदि ऐसा सामान्य माना जाय तो वह विभिन्न देशोंमें रहनेवाली अपनी व्यक्तियों में खण्डशः रहेगा या सर्वात्मना ? यह प्रश्न उपस्थित होता है। खण्डशः मानने पर उसमें सांशत्वका प्रसंग आवेगा-वह निरंश नहीं रहेगा और सर्वात्मना स्वीकार करनेपर वह एक नहीं बन सकेगा। जितने और जहाँ-जहाँ व्यक्ति होंगे उतने ही सामान्य मानने पड़ेंगे। अतः सादृश्यरूप ही सामान्य है और वह व्यक्तियोंका अपना धर्म है । 'सत्-सत्', 'द्रव्यम्-द्रव्यम्' आदि अनुगत व्यवहार इसी सादृश्यमूलक है, स्वतन्त्र सामान्य या सत्तामूलक नहीं। इसी तरह विसदृश नाना व्यक्तियों या नित्य द्रव्योंमें रहनेवाला अपना अलग-अलग स्वरूप, पार्थक्य अथवा बुद्धिगम्य वैलक्षण्य ही विशेष है और वह उन व्यक्तियोंसे स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाला नहीं है, क्योंकि वह उन्हींका अपना उसी प्रकार धर्म है जिस प्रकार सादश्य। जिस प्रकार एक विशेष दूसरे विशेषसे स्वतः व्यावृत्त है, उसका कोई अन्य व्यावर्तक नहीं है उसी तरह समस्त व्यक्तियां और नित्यद्रव्य भी अपने असाधारण स्वरूपसे स्वतः ब्यावृत्त हैं, उनकी व्यावृत्तिके लिए स्वतन्त्र विशेष नामके अनन्त पदार्थोंको माननेकी आवश्यकता नहीं है । सभी व्यक्तियाँ स्वयं विशेष हैं । अतः उन्हें अन्य व्यावतककी जरूरत नहीं है। समवायको तो स्वतन्त्र पदार्थ माना ही नहीं जा सकता, क्योंकि वह दो सम्बन्धियोंके संबन्धका नाम है और सम्बन्ध सम्बन्धियोंसे भिन्न नहीं होता । वह उनसे अभिन्न, अनित्य और अनेक होता है। समवायको नित्य, व्यापक और एक स्वीकार करने पर अनेक दोष आते हैं। अतः वैशेषिकोंके षड् पदार्थ, जो स्वतन्त्र सामान्य-विशेषोभयवादरूप हैं, प्रमाणका विषय-प्रमेय नहीं हैं । नरेन्द्रसेनने इसकी सयुक्तिक आलोचना करते हुए कथंचित् सामान्यविशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक और गुण-गुण्यात्मक वस्तुको प्रमेय सिद्ध किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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